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Bihar Politics: 'तेजस्वी कार्ड' पर कांग्रेस की चुप्पी, क्या एनडीए को बचाने की चाल?

Bihar Politics: 'तेजस्वी कार्ड' पर कांग्रेस की चुप्पी, क्या एनडीए को बचाने की चाल?
अंतिम अपडेट: 1 दिन पहले

बिहार में महागठबंधन सरकार बनने की स्थिति में तेजस्वी यादव के मुख्यमंत्री बनने की संभावना है, लेकिन कांग्रेस अभी उनके नाम का औपचारिक प्रस्ताव करने से बच रही है। यह कांग्रेस की रणनीति का हिस्सा है, जिसका उद्देश्य राजद के समर्थकों के अति उत्साह को रोकना है।

पटना: बिहार में सियासी बिसात बिछ चुकी है और महागठबंधन की ओर से अगला मुख्यमंत्री कौन होगा, इसे लेकर चर्चाओं का बाजार गर्म है। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यह है कि जब राजद प्रमुख तेजस्वी यादव को सभी दलों की तरफ से नेता माने जाने की सहमति है, तो कांग्रेस उनके नाम की औपचारिक घोषणा क्यों नहीं कर रही है? सूत्रों की मानें तो कांग्रेस की यह ‘खामोशी की रणनीति’ सोची-समझी है, जिसका मकसद है राजद समर्थकों के अति उत्साह को नियंत्रित करना, जिससे एनडीए को राजनीतिक लाभ न मिल सके।

तेजस्वी की दावेदारी पर सस्पेंस क्यों?

तेजस्वी यादव बिहार की राजनीति में अब किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव के उत्तराधिकारी के रूप में उन्होंने खुद को साबित भी किया है। पिछले कार्यकाल में बतौर उपमुख्यमंत्री उनकी कार्यशैली को लेकर जनता के बीच सकारात्मक संदेश गया। फिर भी कांग्रेस उनके नाम की आधिकारिक घोषणा से कतरा रही है।

राजनीतिक जानकार मानते हैं कि कांग्रेस को इस बात का डर है कि यदि तेजस्वी यादव को पहले ही महागठबंधन का चेहरा घोषित कर दिया गया, तो उनके कार्यकर्ताओं में असमय उत्साह की लहर दौड़ सकती है। ऐसे अति उत्साही प्रदर्शन से विरोधियों—खासतौर पर एनडीए—को मौका मिल सकता है कि वे 'राजद के डर' की पुरानी छवि को भुना लें।

कार्यकर्ताओं की भाषा ने पहले भी बिगाड़ा माहौल

लोकसभा चुनाव के दौरान जमुई की एक सभा में राजद समर्थक की एक असंसदीय टिप्पणी ने विपक्ष को हथियार दे दिया था। उसने लोजपा (रामविलास) के खिलाफ जिस भाषा का इस्तेमाल किया, वह पूरे महागठबंधन पर भारी पड़ा। यही कारण है कि कांग्रेस अब कोई जोखिम नहीं लेना चाहती। वह चाहती है कि हर कदम रणनीतिक ढंग से उठाया जाए और विपक्ष को कोई मौका न मिले।

मनोज झा ने इशारों में बताया सच

हाल ही में जब मीडिया ने राजद के राष्ट्रीय प्रवक्ता डॉ. मनोज झा से तेजस्वी यादव को सीएम फेस बनाए जाने को लेकर सवाल पूछा, तो उन्होंने चुटकी लेते हुए कहा, कुछ बातें सार्वभौमिक सत्य होती हैं, जैसे कि सूर्य पूर्व से ही उगता है। यह इशारा साफ था कि महागठबंधन की ओर से अगला मुख्यमंत्री तेजस्वी ही होंगे। लेकिन उन्होंने भी कांग्रेस की रणनीति को आगे बढ़ाते हुए नाम की औपचारिक घोषणा नहीं की।

समन्वय समिति में तेजस्वी का नाम आया लेकिन...

तीन दिन पहले महागठबंधन के छह दलों की अहम बैठक हुई, जिसमें समन्वय समिति के अध्यक्ष के चयन पर चर्चा हुई। इस बैठक में कांग्रेस के बिहार प्रभारी कृष्णा अल्लाबारू ने स्वयं तेजस्वी यादव का नाम लिया। यह इस बात की पुष्टि करता है कि कांग्रेस भी महागठबंधन की बागडोर तेजस्वी को देने में सहज है। लेकिन इसके बावजूद सार्वजनिक मंचों पर तेजस्वी के नाम की घोषणा से कांग्रेस परहेज कर रही है।

कांग्रेस की रणनीति: सियासी चुप्पी से सधे कदम

कांग्रेस इस बार कोई गलती नहीं दोहराना चाहती। वह जानती है कि बिहार में जातीय समीकरण, सोशल मीडिया और जमीनी स्तर पर प्रचार से ज्यादा असर कार्यकर्ताओं के आचरण का होता है। यदि कार्यकर्ता उत्तेजित होकर ऐसा कोई बयान दें, जो समाज के कमजोर वर्गों को असुरक्षित महसूस कराए, तो इसका सीधा फायदा एनडीए को होगा।

राजद समर्थकों का एक वर्ग इंटरनेट मीडिया पर पहले ही तेजस्वी को अगला मुख्यमंत्री मानते हुए प्रचार कर रहा है। कांग्रेस चाहती है कि इस प्रचार को एक सीमित दायरे में रखा जाए और चुनावों तक इस जोश को अनुशासन में रखा जाए।

पंचायत स्तर तक समन्वय का प्लान

कांग्रेस की एक और चिंता यह है कि 2020 के विधानसभा चुनाव में महागठबंधन के दलों के बीच पंचायत और गांव स्तर पर समन्वय की भारी कमी देखी गई थी। इसके चलते कई सीटों पर हार हुई। इस बार कांग्रेस ने यह प्रस्ताव रखा है कि समन्वय समिति का विस्तार जिला, प्रखंड और पंचायत स्तर तक किया जाए। इसपर विचार 24 अप्रैल को प्रदेश कांग्रेस कार्यालय, सदाकत आश्रम में होने वाली बैठक में किया जाएगा।

बैठक में यह भी चर्चा होगी कि सभी छह दलों के जिला और प्रखंड अध्यक्ष मिलकर कार्यकर्ताओं को समझाएं कि कोई भी ऐसा आचरण या बयान न दें जिससे जातीय तनाव, सामाजिक डर या भ्रम की स्थिति बने।

राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि कांग्रेस की यह रणनीति भले ही फिलहाल सही दिशा में दिखे, लेकिन इसमें खतरा भी है। यदि तेजस्वी को महागठबंधन का चेहरा घोषित नहीं किया गया, तो विरोधी इस असमंजस को 'नेतृत्व का अभाव' कहकर भुना सकते हैं। दूसरी ओर, राजद समर्थकों की उम्मीदें और भावनाएं भी इससे प्रभावित हो सकती हैं।

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