Columbus

Ground Zero Review: आतंकवाद के गढ़ में BSF के शौर्य की कहानी, क्यों देखें यह फिल्म?

🎧 Listen in Audio
0:00

'ग्राउंड ज़ीरो' सिर्फ एक युद्ध या एक मिशन पर आधारित फिल्म नहीं है, यह देश की सीमाओं की रक्षा करने वाले उन वीर जवानों की कहानी है, जिनकी बहादुरी हमें हर दिन सुरक्षित रखती है। फिल्म बीएसएफ कमांडेंट नरेंद्र नाथ धर दुबे की जिंदगी और उनके अद्वितीय ऑपरेशन पर आधारित है।

Ground Zero: 25 अप्रैल 2025 को सिनेमाघरों में रिलीज हुई 'ग्राउंड ज़ीरो' महज़ एक युद्ध फिल्म नहीं है, बल्कि यह भारतीय सीमा सुरक्षा बल (BSF) की उस बहादुरी और बलिदान की गाथा है, जिसे दशकों तक परदे के पीछे रखा गया। पहली बार किसी फिल्म ने बीएसएफ की भूमिका को केंद्रीय रूप से उठाया है, और वह भी एक ऐसे मिशन के बहाने, जो भारत की आतंकरोधी लड़ाई में मील का पत्थर माना जाता है।

सच्ची घटना से प्रेरित कहानी

फिल्म की कहानी बीएसएफ कमांडेंट नरेंद्र नाथ धर दुबे पर आधारित है, जिन्होंने खतरनाक आतंकी गाजी बाबा को मार गिराने के लिए एक जटिल ऑपरेशन का नेतृत्व किया था। यह वही गाजी बाबा है, जिसे 2001 में भारतीय संसद पर हमले का मास्टरमाइंड माना गया था और जो जैश-ए-मोहम्मद तथा हरकत-उल-अंसार जैसे कुख्यात संगठनों से जुड़ा हुआ था।

कहानी की शुरुआत 2001 के श्रीनगर से होती है, जब 'पिस्टल गैंग' नामक आतंकी ग्रुप घाटी में बीएसएफ जवानों को निशाना बनाकर दहशत फैला रहा होता है। जवानों को पीठ पीछे गोली मार दी जाती है, और एक के बाद एक 70 से अधिक बलिदान हो चुके होते हैं। ऐसे में नरेंद्र (इमरान हाशमी) को इस गैंग के मास्टरमाइंड को पकड़ने की ज़िम्मेदारी मिलती है।

एक्शन से अधिक, संवेदना की कहानी

ग्राउंड ज़ीरो केवल गोली-बारूद या धमाकों की कहानी नहीं है। यह उन भावनाओं, उलझनों और जिम्मेदारियों की भी बात करती है, जिनका सामना एक सैनिक अपने देश, परिवार और वर्दी के प्रति निष्ठा निभाते हुए करता है। नरेंद्र का मानना है कि असली जीत आतंकियों को पकड़ने में नहीं, नौजवानों के हाथ से बंदूक छुड़वाने में है। फिल्म धीरे-धीरे संसद हमले और अक्षरधाम मंदिर हमले की ओर बढ़ती है, जहां से गाजी बाबा के खिलाफ ऑपरेशन को अंजाम तक पहुंचाया जाता है।

इमरान हाशमी की प्रभावशाली वापसी

लंबे समय बाद बड़े पर्दे पर नजर आए इमरान हाशमी ने नरेंद्र की भूमिका में जान फूंक दी है। उन्होंने एक ऑफिसर की कशमकश, दूरदर्शिता, और देशप्रेम को बारीकी से निभाया है। उनका अभिनय पूरी फिल्म की रीढ़ बन जाता है। सईं ताम्हणकर और जोया हुसैन ने अपनी-अपनी भूमिकाओं में संतुलन और संवेदनशीलता दिखाई है, जबकि मुकेश तिवारी हमेशा की तरह असरदार नजर आते हैं।

निर्देशक की पकड़ और तकनीकी उत्कृष्टता

तेजस प्रभा विजय देऊस्कर ने बतौर निर्देशक शानदार संतुलन दिखाया है। उन्होंने श्रीनगर की खूबसूरती को दिखाते हुए धीरे-धीरे दर्शकों को आतंक की भयावहता और बीएसएफ जवानों की जिंदगी के करीब ले जाया है। फिल्म के संवाद कई जगह भावनाओं को झकझोरते हैं — "कश्मीर की जमीन हमारी है या यहां के लोग भी?" जैसे डायलॉग लंबे समय तक ज़ेहन में रहते हैं।

सिनेमैटोग्राफर कमलजीत नेगी ने घाटी की वादियों और आतंक के साये के बीच एक सजीव चित्र प्रस्तुत किया है। वहीं बैकग्राउंड स्कोर तनाव और जज्बे को और गहरा बनाता है।

कमजोरियां जो अखरती हैं

जहां फिल्म का पहला भाग मजबूत है, वहीं इंटरवल के बाद कहानी कुछ हद तक पूर्वानुमेय हो जाती है। गाजी बाबा के किरदार को और ज्यादा गहराई दी जा सकती थी। उसके मनोविज्ञान या व्यक्तिगत जीवन की झलक फिल्म में लगभग नदारद है, जिससे वह एक टिपिकल विलेन भर बनकर रह जाता है। वहीं दिल्ली में बैठे खुफिया एजेंसियों के अधिकारी कहीं-कहीं सतही और कमज़ोर प्रतीत होते हैं।

  • रेटिंग: 3.5/5
  • श्रेणी: एक्शन-ड्रामा / देशभक्ति
  • मुख्य आकर्षण: इमरान हाशमी की दमदार परफॉर्मेंस, वास्तविकता से जुड़ा कथानक, सिनेमेटोग्राफी
  • कमज़ोर पक्ष: विलेन की कमजोर प्रस्तुति, सेकेंड हाफ में ट्विस्ट की कमी

क्यों देखें ‘ग्राउंड ज़ीरो’?

आज जब देश पहलगाम जैसे हमलों से दुखी है, 'ग्राउंड ज़ीरो' उस दुख में उम्मीद की लौ जलाने का काम करती है। यह फिल्म याद दिलाती है कि हमारी सुरक्षा बल न केवल बंदूकें चलाते हैं, बल्कि हर रोज़ अपने प्राणों की बाज़ी लगाकर हमारी हिफाजत करते हैं। बीएसएफ के बलिदान की यह सच्ची कहानी हमें यह समझने का मौका देती है कि सीमाओं के पार लड़ाई कितनी निजी और कठिन होती है।

Leave a comment