हर धर्म में जीवन और मृत्यु से जुड़ी मान्यताएं और परंपराएं होती हैं। किसी के लिए जीवन उत्सव है तो किसी के लिए मृत्यु भी एक आध्यात्मिक यात्रा का आरंभ मानी जाती है। जैन धर्म में भी एक ऐसी ही परंपरा है, जिसे 'संथारा' या 'संलेखना' कहा जाता है। यह परंपरा मृत्यु से ठीक पहले अपनाई जाती है, जिसमें व्यक्ति धीरे-धीरे अन्न और जल का त्याग कर देता है। यह सुनकर कुछ लोगों को यह आत्महत्या जैसी लग सकती है, लेकिन जैन धर्म में इसे आत्मशुद्धि और मोक्ष प्राप्ति का अंतिम मार्ग माना जाता है।
क्या है संथारा या संलेखना?
संथारा जैन धर्म की एक पवित्र और आध्यात्मिक परंपरा है, जिसमें कोई व्यक्ति अपनी मृत्यु को शांतिपूर्वक, आत्मचिंतन और त्याग के साथ स्वीकार करता है। इसमें वह धीरे-धीरे अन्न और जल का त्याग करता है, संसारिक मोह-माया से मुंह मोड़कर आत्मा की शुद्धि में लीन हो जाता है। यह प्रक्रिया लंबी भी हो सकती है और कभी-कभी यह कई हफ्तों या महीनों तक चलती है।
संथारा को सिर्फ बूढ़े या असाध्य रोगों से ग्रस्त लोग ही स्वीकार करते हैं। इसके लिए जैन धर्म के आचार्य या गुरुओं की अनुमति आवश्यक होती है। बिना अनुमति और उचित कारण के कोई भी व्यक्ति संथारा नहीं ले सकता। इसका उद्देश्य जीवन से भागना नहीं, बल्कि जीवन के अंतिम पड़ाव को आध्यात्मिक साधना में बदलना होता है।
संथारा और आत्महत्या में क्या है अंतर?
संथारा और आत्महत्या में एक मूलभूत अंतर है - आत्महत्या में व्यक्ति जीवन से निराश होकर, पीड़ा या परेशानी से बचने के लिए अपनी जान लेता है। इसमें भावनात्मक असंतुलन और मनोवैज्ञानिक दबाव होता है। वहीं संथारा पूरी तरह से शांत मन, आध्यात्मिक चेतना और मोक्ष की प्राप्ति की भावना के साथ किया जाता है। इसमें व्यक्ति मृत्यु को भय नहीं बल्कि एक साधना मानकर स्वीकार करता है।
संथारा एक योजनाबद्ध, सार्वजनिक और आध्यात्मिक प्रक्रिया है जिसमें परिवार, समाज और धर्मगुरु की उपस्थिति होती है। इसके विपरीत आत्महत्या एक निजी, छिपी और दर्दनाक प्रक्रिया होती है।
संथारा की प्रक्रिया कैसे होती है?
संथारा की प्रक्रिया धीरे-धीरे शुरू होती है। जब किसी को यह अनुभव होता है कि उसका शरीर अब आगे साधना या सेवा के योग्य नहीं है, और मृत्यु निकट है, तो वह अपने धर्मगुरु से संथारा की अनुमति लेता है। इसके बाद वह धीरे-धीरे भोजन और जल का सेवन कम करता है और अंततः पूरी तरह त्याग देता है।
इस अवधि में वह व्यक्ति आत्मचिंतन, जप, तप, ध्यान और धर्मग्रंथों का अध्ययन करता है। उसके परिवारजन और अनुयायी उसे समर्थन देते हैं और वातावरण को आध्यात्मिक बनाते हैं। अंतिम समय तक उस व्यक्ति को श्रद्धा और सम्मान के साथ देखा जाता है। जैन धर्म में इसे एक पुण्य और मोक्षदायक कार्य माना जाता है।
अन्य धर्मों में भी मिलती हैं ऐसी झलकियां
हालांकि संथारा विशेष रूप से जैन धर्म से जुड़ी हुई है, लेकिन अन्य धर्मों में भी ऐसी कुछ झलकियां मिलती हैं। उदाहरण के तौर पर हिन्दू धर्म में वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम की परिकल्पना है, जिसमें व्यक्ति जीवन के अंतिम चरण में संसारिक जीवन से विरक्त होकर आध्यात्मिक मार्ग अपनाता है। कुछ संतों ने जीवन के अंतिम समय में उपवास और मौन व्रत के माध्यम से देहत्याग किया है।
बौद्ध धर्म में भी निर्वाण की प्राप्ति के लिए त्याग और ध्यान को अंतिम मार्ग बताया गया है। ईसाई और इस्लाम धर्म में भले ही संथारा जैसी प्रक्रिया न हो, लेकिन आत्मा की शुद्धि, संयम और तपस्या के सिद्धांत मौजूद हैं।
कानूनी विवाद और सामाजिक बहस
संथारा परंपरा पर समय-समय पर कानूनी और सामाजिक बहस होती रही है। साल 2006 में एक जनहित याचिका के माध्यम से इसे आत्महत्या का नाम देते हुए राजस्थान हाईकोर्ट में मामला दायर किया गया। 2015 में कोर्ट ने इसे आत्महत्या मानते हुए उस पर रोक लगा दी।
इस फैसले के बाद जैन समाज में भारी विरोध हुआ और इसे धार्मिक स्वतंत्रता का उल्लंघन बताया गया। आखिरकार सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की गई और सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले पर रोक लगाते हुए संथारा को फिर से वैध घोषित कर दिया। इस निर्णय से जैन समाज को बड़ी राहत मिली और उनकी धार्मिक परंपरा को संवैधानिक संरक्षण मिला।
संथारा: मृत्यु नहीं, मोक्ष का द्वार
जैन धर्म में संथारा को मृत्यु का अंत नहीं बल्कि आत्मा की मुक्ति का द्वार माना जाता है। यह जीवन के अंतिम क्षणों में आत्मा को मोह-माया से मुक्त कर परम शांति की ओर ले जाता है। यह प्रक्रिया केवल बाहरी उपवास नहीं, बल्कि आंतरिक तप, आत्मनिरीक्षण और आत्मशुद्धि की प्रक्रिया होती है। संथारा का मूल संदेश है - जीवन का सम्मान, मृत्यु का स्वीकार और आत्मा की शुद्धि। यह हमें सिखाता है कि मृत्यु डर का विषय नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक प्रक्रिया भी हो सकती है।