एक समय की बात है, जब हिमालय की गोद में स्थित मानसरोवर झील, जिसे प्राचीन काल में 'ठमानस-सरोवर' कहा जाता था, अपनी अलौकिक सुंदरता के लिए प्रसिद्ध थी। यह केवल एक जलाशय नहीं था, बल्कि यह स्वर्गिक सौंदर्य और दिव्यता का जीवंत प्रतीक था। मानसरोवर में असंख्य श्वेत हंस निवास करते थे, जिनके पंखों की उज्ज्वलता आकाश में तैरते बादलों को भी मात देती थी और जिनका कलरव अप्सराओं की नूपुर-ध्वनि से अधिक मधुर प्रतीत होता था।
दो विशिष्ट स्वर्ण हंस
इन असंख्य हंसों में दो स्वर्ण हंस सबसे विशेष थे, उनका रूप, कांति और आभा अन्य सभी से विलक्षण थी। वे न केवल दिखने में एक समान थे, बल्कि अपने गुणों, शील और विवेक में भी अद्वितीय थे। उनमें एक था राजा युधिष्ठिर और दूसरा उसका परम निष्ठावान सेनापति सुमुख। इन दोनों की ख्याति केवल धरती पर ही नहीं, बल्कि स्वर्ग, नागलोक, यक्षलोक और विद्याधर-समुदायों में भी फैली हुई थी। यहां तक कि मनुष्यलोक में भी उनके गुण और गौरव की चर्चा होनी लगी थी।
वाराणसी के तत्कालीन नरेश ने जब इन स्वर्ण हंसों की चर्चा सुनी तो उनके मन में उन्हें पाने की प्रबल इच्छा जागी। उन्होंने मानसरोवर की तरह एक सुंदर कृत्रिम सरोवर बनवाया। उसमें तरह-तरह के जलीय पुष्प—पद्म, उत्पल, कुमुद, पुण्डरीक, सौगंधिक आदि—और रंग-बिरंगे पक्षियों को बसाया गया। साथ ही, उस सरोवर में पक्षियों की पूर्ण सुरक्षा का भी प्रबंध किया गया, जिससे नाना प्रकार के पंछी वहाँ निर्भय होकर रहने लगे।
स्वर्ण हंसों का आगमन
एक बार, जब वर्षा ऋतु समाप्त हुई और आकाश नीला और निर्मल हो गया, तो मानस के राजा युधिष्ठिर और सेनापति सुमुख सरोवर के ऊपर से उड़ते हुए वाराणसी पहुँचे। उन्होंने उस रमणीय कृत्रिम सरोवर को देखा और उसकी सुंदरता से मोहित होकर वहीं उतर आए। वे महीनों तक उस सरोवर में रहे, उसकी सुरक्षा और स्वच्छंदता का आनंद लेते रहे, और फिर मानस लौट गए। वापस जाकर उन्होंने वहाँ की सुख-सुविधा और वातावरण की इतनी प्रशंसा की कि अन्य हंसों में भी वाराणसी जाने की लालसा जाग उठी।
युधिष्ठिर ने पहले तो अन्य हंसों को वाराणसी जाने से रोका। उसने कहा, "मनुष्य की प्रकृति बहुत भिन्न होती है। पंछी अपनी भावनाओं को सीधे प्रदर्शित करते हैं, किंतु मनुष्य अपनी भावनाओं को छिपाकर, उन्हें भंगिमाओं और शब्दों की चतुरता से व्यक्त करता है।" परंतु हंसों के आग्रह के सामने अंततः उसे झुकना पड़ा और वर्षा ऋतु के बाद सभी हंस वाराणसी की ओर उड़ चले।
धोखे की साजिश और त्याग की परीक्षा
जब हंसों का समूह वाराणसी के सरोवर में आकर उतरा, तो नरेश को इसकी सूचना मिली। उसने तत्काल एक निषाद को नियुक्त किया, जिसका कार्य था उन दो विशेष हंसों को पकड़ना। एक दिन जब युधिष्ठिर सरोवर के किनारे भ्रमण कर रहा था, तभी उसका पैर निषाद के बिछाए जाल में फंस गया। उसने स्वयं के पकड़े जाने की चिंता न करते हुए, तीव्र स्वर में सभी हंसों को उड़ जाने का आदेश दिया।
सभी हंस उड़ गए, लेकिन सेनापति सुमुख वहीं रुक गया। युधिष्ठिर ने उसे भी जाने को कहा, परंतु सुमुख ने कहा, “राजा, मैं अपने स्वामी को छोड़कर नहीं जाऊंगा। यदि मेरा जीवन मूल्यवान है, तो वह आपके साथ ही है।” निषाद ने जब यह वचन सुना तो वह अचंभित रह गया। एक पक्षी की ऐसी वफादारी ने उसके हृदय को झकझोर दिया। उसने स्वयं को नीचा महसूस किया—एक मनुष्य होकर वह मानवता से दूर था, जबकि एक पक्षी में इतना त्याग और स्नेह था।
इस पश्चाताप से प्रेरित होकर निषाद ने दोनों हंसों को मुक्त कर दिया। परंतु हंसों ने अपनी दिव्य दृष्टि से यह जान लिया था कि निषाद को राजा के कोप का सामना करना पड़ेगा। इसलिए वे निषाद को अपने साथ लेकर स्वयं राजदरबार पहुँचे।
अमर हुई एक कथा
जब राजा और दरबारीगण ने देखा कि जिन हंसों को पकड़ने के लिए प्रयत्न किए गए थे, वे स्वयं दरबार में उपस्थित हो गए हैं, वह अत्यंत विस्मित हो गया। जब उसने उनके वचनों और निषाद की कहानी सुनी, तो उसकी आत्मा भी द्रवित हो उठी। उसने निषाद को दंड मुक्त कर सम्मानित किया, और दोनों हंसों को राजसी आतिथ्य प्रदान किया। कुछ समय तक वे हंस दरबार में रहे और राजा तथा सभाजनों को अपने ज्ञान और अनुभव से मार्गदर्शन देते रहे।
कुछ समय पश्चात वे दोनों हंस पुनः मानसरोवर लौट गए, लेकिन उनके द्वारा सिखाई गई स्वामिभक्ति, निष्ठा, त्याग और करुणा की कहानी युगों-युगों तक लोगों के हृदय में जीवित रही।