संविधान की प्रस्तावना में शामिल ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्दों की समीक्षा की जरूरत बताने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) महासचिव दत्तात्रेय होसबाले के बयान पर सियासत गर्मा गई है।
नई दिल्ली: भारत के संविधान की प्रस्तावना से ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ जैसे शब्द हटाने की चर्चा एक बार फिर गरमा गई है। इस बार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के महासचिव दत्तात्रेय होसबाले ने सार्वजनिक मंच से इस विषय में समीक्षा की मांग करते हुए कहा कि ये शब्द आपातकाल के दौरान जबरन जोड़े गए थे और संविधान सभा की मूल भावना में नहीं थे।
इसके जवाब में कांग्रेस ने गुरुवार को आरएसएस और भाजपा पर तीखा हमला बोला और कहा कि यह बाबा साहेब अंबेडकर के संविधान को खत्म करने की साजिश है, जिसे वे किसी भी कीमत पर सफल नहीं होने देंगे।
दरअसल, दत्तात्रेय होसबाले ने आपातकाल की बरसी पर आयोजित एक कार्यक्रम में कहा कि जब 1975 में आपातकाल लगाया गया, उस दौरान संसद निष्क्रिय थी, न्यायपालिका भी पंगु हो गई थी और मौलिक अधिकार तक स्थगित कर दिए गए थे। ऐसे हालात में संविधान की प्रस्तावना में समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष शब्दों को शामिल किया गया, जबकि डॉ. अंबेडकर द्वारा तैयार किए गए संविधान में इन शब्दों का उल्लेख नहीं था। होसबाले ने कहा कि अब समय आ गया है कि यह विचार किया जाए कि क्या इन्हें प्रस्तावना में रखा जाना चाहिए या नहीं।
कांग्रेस का पलटवार
कांग्रेस ने इस बयान पर फौरन पलटवार किया। पार्टी ने एक्स (पूर्व में ट्विटर) पर एक पोस्ट कर आरएसएस और भाजपा को संविधान विरोधी मानसिकता वाला करार दिया। कांग्रेस ने कहा कि आरएसएस-भाजपा की सोच संविधान के मूल स्वरूप को तोड़ने वाली है। पार्टी ने दावा किया कि जब संविधान लागू हुआ था, तब भी आरएसएस ने इसका विरोध किया था और संविधान की प्रतियां जलाई थीं।
कांग्रेस ने आरोप लगाया कि भाजपा लोकसभा चुनावों में भी 400 सीटों का नारा देकर संविधान बदलने की मंशा जता चुकी है। अब यह कोशिश उसी दिशा में एक और कदम है। कांग्रेस प्रवक्ता जयराम रमेश ने बयान में कहा, आरएसएस-भाजपा संविधान की आत्मा पर प्रहार करना चाहते हैं। यह बाबा साहेब अंबेडकर के बनाए संविधान को खत्म करने का एजेंडा है। हम इसे सफल नहीं होने देंगे।
राजनीतिक हलकों में बहस तेज
RSS के इस बयान के बाद सियासी गलियारों में बहस तेज हो गई है। कई विपक्षी दलों ने भी कांग्रेस का समर्थन करते हुए कहा कि संविधान की प्रस्तावना छेड़ना भारत की लोकतांत्रिक आत्मा के साथ खिलवाड़ होगा। कुछ जानकारों का मानना है कि ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द भारतीय सामाजिक-सांस्कृतिक ताने-बाने में गहराई से जुड़े हैं और इन्हें हटाने की बात से करोड़ों भारतीयों की आस्था को ठेस पहुंचेगी।
हालांकि, आरएसएस समर्थकों का तर्क है कि डॉ. अंबेडकर की सोच में इन शब्दों को प्रस्तावना में शामिल करने की आवश्यकता नहीं थी और 1976 में तत्कालीन सरकार ने आपातकाल की परिस्थितियों में इसे जोड़कर मूल भावना को बदला। इसलिए समीक्षा की बात करना संविधान विरोध नहीं, बल्कि ऐतिहासिक सच्चाई को स्पष्ट करने की कोशिश है।
इस मुद्दे ने 2024 के लोकसभा चुनाव के बाद बने सियासी समीकरणों में एक नई बहस छेड़ दी है। जहां एक ओर भाजपा समर्थक वर्ग इसे ऐतिहासिक सुधार की दिशा में बहस बता रहा है, वहीं कांग्रेस और अन्य विपक्षी दल इसे सीधा संविधान के बुनियादी ढांचे पर हमला मान रहे हैं।
कानूनी जानकारों के मुताबिक, प्रस्तावना में बदलाव के लिए संविधान संशोधन की प्रक्रिया आवश्यक होगी, जिसमें संसद के दोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत के अलावा, आधे राज्यों की मंजूरी भी जरूरी है। ऐसे में फिलहाल इस बहस का असर अधिक राजनीतिक दिखाई दे रहा है, जबकि व्यवहारिक तौर पर इसे लागू कर पाना आसान नहीं होगा।