भगवान श्रीकृष्ण ने भगवद् गीता में धर्म और अधर्म के महत्व को स्पष्ट किया है। गीता में बताया गया है कि जो लोग अधर्म के मार्ग पर चलते हैं, वे सही और गलत का भेद नहीं समझ पाते और केवल स्वार्थ और भौतिक सुखों में उलझ जाते हैं। धर्म केवल पूजा नहीं, बल्कि जीवन जीने की नैतिक और सामाजिक पद्धति है।
Gita Teachings on Dharma and Adharma: भगवद् गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने मानव जीवन में धर्म और अधर्म की भूमिका को उजागर किया है। वे कहते हैं कि आसुरी प्रवृत्ति वाले लोग अपने स्वार्थ और वासनाओं में उलझकर नैतिकता और सत्य का पालन नहीं करते। धर्म केवल अनुष्ठान नहीं बल्कि जीवन जीने की सही पद्धति है, जो समाज में संतुलन और सकारात्मक बदलाव लाती है। आज के समय में यह संदेश व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन दोनों के लिए अत्यंत प्रासंगिक है।
मानव स्वभाव के दो पहलू
गीता में श्रीकृष्ण ने मानव स्वभाव के दो पहलुओं – दैवी और आसुरी प्रवृत्ति – पर प्रकाश डाला है। दैवी प्रवृत्ति वाले लोग धर्म, सत्य और सदाचार का पालन करते हैं और समाज में सकारात्मक योगदान देते हैं। इसके विपरीत, आसुरी प्रवृत्ति वाले लोग केवल अपने स्वार्थ और भौतिक सुखों में उलझे रहते हैं। उनके अंदर न तो सच्चाई का बोध होता है, न नैतिक मर्यादा और न ही आत्मिक संतुलन। वे धर्म के मार्ग से भटककर अधर्म के कार्यों में फंस जाते हैं।
श्रीकृष्ण का उपदेश बताता है कि अधर्म केवल गलत कर्म नहीं है, बल्कि यह जीवन और समाज के लिए विनाशकारी भी है। जब व्यक्ति अपने स्वार्थ, वासनाओं और अहंकार के लिए सत्य और नैतिकता को तुच्छ समझने लगता है, तब वह भ्रम और अंधकार में खो जाता है।

धर्म सिर्फ अनुष्ठान नहीं, जीवन पद्धति
श्रीकृष्ण स्पष्ट करते हैं कि धर्म का अर्थ केवल पूजा या अनुष्ठान नहीं है। धर्म एक ऐसी जीवन पद्धति है जो मनुष्य को आत्मिक शांति, संतुलन और समाज के कल्याण की दिशा में ले जाता है। यह समाज में व्यवस्था बनाए रखने का आधार है। जब यह मर्यादा टूटती है, तब व्यक्ति अपने स्वार्थ और अहंकार के चलते सही और गलत का भेद खो देता है।
आज के आधुनिक युग में यह संदेश और भी प्रासंगिक हो गया है। अक्सर लोग कहते हैं कि हर किसी का सत्य अलग होता है, लेकिन श्रीकृष्ण चेतावनी देते हैं कि यह सोच अंततः भ्रम और नैतिक पतन की ओर ले जाती है। यदि हर व्यक्ति अपनी सुविधा के अनुसार सत्य गढ़ने लगे, तो समाज में नियम, न्याय और मर्यादा का कोई अस्तित्व नहीं रहेगा। इसलिए गीता में सत्य को परम और स्थायी मूल्य बताया गया है। यही सत्य धर्म का मूल है।
अधर्म का परिणाम और आसुरी प्रवृत्ति
भगवान श्रीकृष्ण के अनुसार, आसुरी प्रवृत्ति वाले लोग अपने कर्मों के परिणाम पर ध्यान नहीं देते। वे अपने स्वार्थ और अहंकार के चलते समाज और अपने जीवन के लिए विनाशकारी निर्णय लेते हैं। शुद्धता, सत्य और नैतिकता से विमुख व्यक्ति स्वयं के लिए और समाज के लिए खतरा बन जाता है। ऐसे लोग अधर्म का मार्ग चुनकर भ्रम, हिंसा और असत्य को अपने जीवन में प्रवेश देते हैं।
गीता में कहा गया है कि इस प्रकार के लोग उचित और अनुचित का भेद नहीं कर पाते। उनके लिए धर्म का कोई महत्व नहीं होता और वे केवल अपनी इच्छाओं और लालसाओं में उलझकर अपने जीवन को और समाज को खतरे में डालते हैं।
धर्म और सदाचार ही स्थायी मूल्य
श्रीकृष्ण जीवन में धर्म, सत्य और सदाचार को स्थायी मूल्य मानते हैं। जो व्यक्ति इनसे विमुख होता है, वह धीरे-धीरे विनाश की ओर बढ़ता है। गीता में यह स्पष्ट किया गया है कि व्यक्ति का उद्देश्य केवल भौतिक सुख या स्वार्थ नहीं होना चाहिए। उसके जीवन में नैतिकता, सच्चाई और दूसरों के कल्याण की भावना होना अनिवार्य है।
गीता का यह संदेश हमें बताता है कि जीवन में स्थायी और सार्थक सफलता पाने के लिए धर्म और नैतिकता का पालन करना आवश्यक है। सही आचरण, सच्चाई और सदाचार से व्यक्ति न केवल आत्मिक शांति प्राप्त करता है, बल्कि समाज में सकारात्मक बदलाव भी लाता है।













