7 नवंबर 2025 को राष्ट्रीय गीत 'वंदे मातरम' की रचना के 150 वर्ष पूरे हो रहे हैं। यह केवल एक गीत नहीं है, बल्कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की आत्मा का प्रतीक है, जिसने न केवल आज़ादी की लड़ाई में नई ऊर्जा भर दी, बल्कि भारतीय भाषाओं और साहित्य को भी मजबूती और नए आयाम दिए।
Vande Mataram: इस वर्ष 7 नवंबर 2025 को भारत का राष्ट्रीय गीत ‘वंदे मातरम’ 150 वर्ष का हो गया। यह गीत केवल संगीत या शब्दों का संग्रह नहीं है, बल्कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की आत्मा और देशभक्ति का प्रतीक है। आज, दुनिया के करोड़ों लोग इसे केवल एक गीत के रूप में नहीं बल्कि भारतीय राष्ट्रीय गौरव और संघर्ष की पहचान के रूप में जानते हैं। इस महत्वपूर्ण अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इंदिरा गांधी इनडोर स्टेडियम में वर्षभर चलने वाले स्मरणोत्सव का उद्घाटन करेंगे और विशेष स्मारक डाक टिकट एवं सिक्का जारी करेंगे।
वंदे मातरम की रचना बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने 7 नवंबर 1874 को अक्षय नवमी के शुभ अवसर पर की थी। यह गीत बाद में उनके प्रसिद्ध उपन्यास ‘आनंदमठ’ (1882) में भी शामिल किया गया और स्वतंत्रता संग्राम के दौरान क्रांतिकारियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बन गया।
बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय: साहित्य और स्वतंत्रता का संगम
बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय का जन्म 26 जून 1838 को पश्चिम बंगाल के 24 परगना जिले के कांठलपाड़ा गांव में हुआ था। वे बंगला साहित्य के एक महान उपन्यासकार और विचारक माने जाते हैं। बंकिम चंद्र ने भारतीय साहित्य को जनमानस तक पहुंचाने में अद्वितीय योगदान दिया और उन्हें “भारत का एलेक्जेंडर ड्यूमा” कहा जाता है।
उन्होंने मात्र 27 वर्ष की आयु में अपना पहला उपन्यास ‘दुर्गेश नंदिनी’ लिखा। इसके बाद बंकिम चंद्र ने साहित्य और राष्ट्रीय चेतना दोनों क्षेत्रों में अद्भुत योगदान दिया। उनकी लेखनी ने बंगाल और हिंदी भाषी पाठकों में देशभक्ति और सांस्कृतिक गर्व की भावना को उजागर किया।
बंकिम चंद्र की शिक्षा और प्रशासनिक जीवन
बंकिम चंद्र ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा पूरी करने के बाद हुगली कॉलेज और प्रेसीडेंसी कॉलेज, कोलकाता से उच्च शिक्षा प्राप्त की। 1857 में वे पहले भारतीय बने जिन्होंने प्रेसीडेंसी कॉलेज से बीए की उपाधि प्राप्त की। इसके बाद 1869 में उन्होंने कानून की डिग्री भी हासिल की। कानून की पढ़ाई पूरी करने के बाद बंकिम चंद्र को डिप्टी मजिस्ट्रेट के पद पर नियुक्त किया गया।
उन्होंने कुछ वर्षों तक बंगाल सरकार में सचिव के रूप में भी कार्य किया। अपने उत्कृष्ट प्रशासनिक कार्यों के लिए उन्हें रायबहादुर और CIE जैसी उपाधियां भी प्राप्त हुईं। 1891 में उन्होंने सरकारी नौकरी से सेवानिवृत्ति ली।

वंदे मातरम की रचना की प्रेरणा
1874 में बंकिम चंद्र ने देशभक्ति का गीत ‘वंदे मातरम’ लिखा। इसके पीछे की कहानी बेहद रोचक है। उस समय अंग्रेजी हुक्मरानों ने हर सार्वजनिक कार्यक्रम में गॉड! सेव द क्वीन गाने को अनिवार्य कर दिया था। यह भारतीयों के लिए अपमानजनक था। इस प्रतिक्रिया में बंकिम चंद्र ने मातृभूमि को माता के रूप में संबोधित करते हुए वंदे मातरम लिखा।
इस गीत के माध्यम से उन्होंने भारतीयों के मन में स्वतंत्रता और राष्ट्रीयता की भावना को जगाया। यह गीत बाद में उनके उपन्यास ‘आनंदमठ’ (1882) में भी शामिल किया गया, जिसने देशभक्ति और स्वाधीनता आंदोलन में अपार योगदान दिया।
वंदे मातरम का सार्वजनिक प्रदर्शन
वंदे मातरम को पहली बार 1896 में कोलकाता में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में गाया गया। इसके तुरंत बाद यह गीत क्रांतिकारियों के बीच अत्यधिक लोकप्रिय हो गया। देशभर में युवा, बच्चे, पुरुष और महिलाएं इसे गाने लगे। अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ यह गीत स्वतंत्रता की एक अनूठी आवाज़ बन गया। गीत की धुन भी बेहद खास है। कहा जाता है कि रवींद्रनाथ टैगोर ने बंकिम चंद्र के इस गीत के लिए संगीत तैयार किया। समय के साथ, वंदे मातरम ने केवल स्वतंत्रता आंदोलन का गीत नहीं बल्कि भारतीय राष्ट्रभावना का प्रतीक बनकर इतिहास में अपना अमिट स्थान बना लिया।
वंदे मातरम न केवल एक गीत था, बल्कि स्वतंत्रता संग्राम के दौरान क्रांतिकारियों के लिए एक मुख्य उद्घोष बन गया। यह गीत लोगों में देशभक्ति की भावना और संघर्ष की प्रेरणा पैदा करता रहा। बंकिम चंद्र की यह रचना आज भी लाखों भारतीयों के दिल में राष्ट्रप्रेम और एकता की भावना को जीवित रखती है। 24 जनवरी 1950 को भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने वंदे मातरम को आधिकारिक राष्ट्रगीत का दर्जा दिया। तब से यह गीत प्रत्येक राष्ट्रीय कार्यक्रम, सरकारी समारोह और स्वतंत्रता दिवस एवं गणतंत्र दिवस के अवसर पर गाया जाता है।
बंकिम चंद्र की विरासत
बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने केवल साहित्य जगत को ही समृद्ध नहीं किया, बल्कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और राष्ट्रीय चेतना में भी अनमोल योगदान दिया। उनके द्वारा रचित वंदे मातरम आज भी युवा पीढ़ी में देशभक्ति और साहस का प्रतीक है। उनकी लेखनी ने बंगाली और हिंदी भाषी समाज को जोड़ने का कार्य किया। उनके उपन्यास और गीत आज भी हमें यह याद दिलाते हैं कि साहित्य केवल मनोरंजन का माध्यम नहीं, बल्कि समाज और राष्ट्र को जागृत करने का साधन भी हो सकता है।












