भारतीय इतिहास में कुछ ऐसे शासक हुए हैं जिन्होंने न केवल तलवार से बल्कि कलम, संस्कृति और साहित्य से भी अपना नाम अमर कर दिया। ऐसे ही एक महान सम्राट थे कृष्णदेवराय, जो विजयनगर साम्राज्य के तुलुव वंश के तीसरे शासक थे। उनके शासनकाल को दक्षिण भारत के 'स्वर्ण युग' के रूप में याद किया जाता है। इस लेख में हम कृष्णदेवराय के जीवन, युद्धों, साहित्यिक योगदान और धार्मिक भक्ति से जुड़े पहलुओं को विस्तार से जानेंगे।
प्रारंभिक जीवन और पृष्ठभूमि
कृष्णदेवराय का जन्म 17 जनवरी 1471 को तुलुवा नरसा नायक और नागमम्बा के घर हुआ था। उनके पिता साम्राज्य के सेनापति थे और बाद में विजयनगर साम्राज्य की सत्ता पर काबिज हुए। कृष्णदेवराय को प्रशासनिक ज्ञान, युद्ध कौशल और धार्मिक संस्कार विरासत में मिले थे। अपने सौतेले भाई वीरनरसिंह की मृत्यु के बाद 1509 में वे विजयनगर के सम्राट बने।
सैन्य पराक्रम और साम्राज्य विस्तार
कृष्णदेवराय का शासनकाल सैन्य दृष्टि से अत्यंत सशक्त और रणनीतिक रहा। उन्होंने बहमनी सल्तनत, बीजापुर, गोलकुंडा और ओडिशा के गजपति जैसे शक्तिशाली दुश्मनों को पराजित कर भारत के दक्षिणी भाग में विशाल साम्राज्य की स्थापना की। उनके प्रमुख युद्धों में 1512 में रायचूर दोआब की विजय, 1514 में ओडिशा की अधीनता और 1520 में बीजापुर के सुल्तान पर निर्णायक जीत शामिल हैं। उनका युद्ध कौशल इतना उत्कृष्ट था कि कई बार उन्होंने हार को जीत में बदल दिया।
रणनीति और नेतृत्व की मिसाल
कृष्णदेवराय न केवल एक महान योद्धा थे, बल्कि एक कुशल रणनीतिकार भी थे। वे हर युद्ध की योजना व्यक्तिगत रूप से बनाते और अक्सर सेना का नेतृत्व स्वयं करते। उनके प्रधानमंत्री तिम्मारुसु और दरबारी चतुर विदूषक तेनालीराम उनके मार्गदर्शक और रणनीतिक सलाहकार रहे। उनके नेतृत्व का प्रभाव इतना व्यापक था कि मुगल सम्राट बाबर ने उन्हें 'सबसे शक्तिशाली भारतीय राजा' कहा। पुर्तगाली यात्री डोमिंगो पेस ने भी उनके न्याय, दयालुता और नेतृत्व की प्रशंसा की।
साहित्य और कला के स्वर्ण युग के रचयिता
कृष्णदेवराय को केवल एक योद्धा समझना उनकी महानता का अपमान होगा। वे एक उत्कृष्ट साहित्यप्रेमी, कवि और कला संरक्षक भी थे। उनके शासनकाल को तेलुगु साहित्य का 'स्वर्ण युग' कहा जाता है। उनके दरबार में अष्टदिग्गज नामक आठ महान कवि थे, जिनमें अल्लासानी पेद्दाना, पिंगली सुराणा और तेनालीराम प्रमुख थे। उन्होंने स्वयं तेलुगु भाषा में 'अमुक्तमाल्यदा' नामक प्रसिद्ध भक्ति काव्य की रचना की। यह ग्रंथ भगवान विष्णु को समर्पित है और साहित्यिक दृष्टि से अत्यंत मूल्यवान माना जाता है।
धर्म, संस्कृति और मंदिर सेवा
कृष्णदेवराय धार्मिक सहिष्णुता के प्रतीक माने जाते हैं। वे वैष्णव और शैव दोनों परंपराओं को समान श्रद्धा से मानते थे। उन्होंने तिरुपति बालाजी मंदिर को हीरे-जड़ित मुकुट, तलवार और बहुमूल्य रत्न भेंट किए। उन्होंने मंदिरों का जीर्णोद्धार करवाया और हर वर्ष मंदिरों की यात्रा पर निकलते थे। उनके शासन में विरुपाक्ष, श्रीशैलम, चिदंबरम, तिरुवन्नमलै जैसे प्रसिद्ध मंदिरों का जीर्णोद्धार हुआ। उन्होंने धार्मिक संतों को संरक्षण दिया और हर संप्रदाय के पूजकों का आदर किया।
सामाजिक सुधार और प्रशासनिक दूरदर्शिता
कृष्णदेवराय एक आदर्श राजा थे। उन्होंने भ्रष्टाचार के विरुद्ध कठोर कदम उठाए और गरीबों की स्थिति सुधारने के लिए कृषि सुधार लागू किए। विवाह कर जैसी कुरीतियों को समाप्त किया। उन्होंने सिंचाई के लिए तालाबों और नहरों का निर्माण करवाया ताकि कृषि उत्पादन बढ़े। उन्होंने अपने ग्रंथ 'अमुक्तमाल्यदा' में स्पष्ट रूप से लिखा: 'राज्य का विस्तार ही संपत्ति का साधन है। इसलिए, यदि भूमि सीमित भी हो, तो तालाब खुदवाओ, गरीबों को ज़मीन दो, और प्रजा को समृद्ध बनाओ।'
पतन की ओर अंतिम यात्रा
1524 में कृष्णदेवराय ने अपने पुत्र तिरुमला राय को युवराज घोषित किया, लेकिन कुछ समय बाद उसकी रहस्यमय मृत्यु हो गई। राजा ने अपने प्रधानमंत्री तिम्मारुसु पर संदेह करते हुए उन्हें अंधा करवा दिया, जो बाद में उनके जीवन का सबसे बड़ा पश्चाताप बना। इसके बाद वे बीमार पड़ने लगे और 17 अक्टूबर 1529 को उनका निधन हो गया। उनके भाई अच्युतदेवराय ने गद्दी संभाली।
स्मृति और महत्त्व
कृष्णदेवराय आज भी दक्षिण भारत में वीरता, धर्म, और कला के प्रतीक माने जाते हैं। हम्पी के विट्ठल मंदिर में उनके शिलालेख, तिरुपति में उनकी मूर्ति, और तेलुगु साहित्य में उनकी महाकाव्य ‘अमुक्तमाल्यदा’ – ये सभी उनके यश का स्मारक हैं। इतिहासकार उन्हें 'आंध्र भोज' और 'कला का अधिपति' कहते हैं। उनकी बहुभाषीय साहित्यिक उपलब्धियां और सांस्कृतिक योगदान उन्हें भारत के सबसे महान शासकों की श्रेणी में लाते हैं।
आज जब राजनीति, संस्कृति और नेतृत्व में नई चुनौतियाँ हैं, कृष्णदेवराय जैसे शासकों से प्रेरणा लेना ज़रूरी है। उन्होंने शक्ति और करुणा के अद्वितीय संतुलन को दर्शाया, और संस्कृति, धर्म व साहित्य के क्षेत्र में जो योगदान दिया, वह सदियों तक प्रेरणा देता रहेगा।