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Rakshabandhan 2025: श्रीकृष्ण, लक्ष्मी और रानी कर्मवती से जुडी पौराणिक कथाएं

Rakshabandhan 2025: श्रीकृष्ण, लक्ष्मी और रानी कर्मवती से जुडी पौराणिक कथाएं

श्रावण मास की पूर्णिमा को मनाया जाने वाला रक्षाबंधन केवल धागे का पर्व नहीं, बल्कि “स्नेह और संकल्प” की सनातन परंपरा है। बहनें भाई की कलाई पर रक्षासूत्र बाँधकर उसके दीर्घ जीवन और रक्षा की कामना करती हैं, तो भाई बहन के मान-सम्मान की प्रतिज्ञा लेते हैं। पर क्या आप जानते हैं कि इस पर्व की जड़ें महाभारत काल, विष्णु-कृपा और मध्यकालीन इतिहास तक फैली हुई हैं? 

कृष्ण-द्रौपदी: करुणा से जन्मी कर्म-ज्योति

महाभारत के युद्ध से कुछ समय पूर्व, श्रीकृष्ण शिशुपाल वध के समय शस्त्र चलाते हुए ज़रा-सा घायल हो गए। उनके अंगूठे से रक्त बहने लगा। सभा में उपस्थित द्रौपदी ने बिना देर किए अपनी साड़ी का पल्लू फाड़कर श्रीकृष्ण की ऊँगली पर बाँध दिया। वह दिन श्रावण पूर्णिमा ही था। द्रौपदी की निस्स्वार्थ ममता से अभिभूत कृष्ण ने कृतज्ञ होकर कहा, 'सखी! समय आने पर मैं तुम्हारी लाज की रक्षा करूंगा।' वर्षों बाद द्यूत-सभा में जब दुशासन द्रौपदी का चीर खींच रहा था, तब कृष्ण ने उसी 'रक्षा-बंधन' का ऋण चुकाते हुए असीम चीर प्रदान कर उनकी मर्यादा बचाई। इस कथा से संदेश मिलता है कि राखी केवल रक्त-संबंधी भाई-बहन का, बल्कि हर उस पवित्र नाते का प्रतीक है जहाँत्याग और रक्षा का संकल्प हो।

लक्ष्मी-महाबली: विष्णु-पत्नी की युक्ति से जन्मी पाताल-रक्षा

स्कंदपुराण में वर्णित कथा के अनुसार, राक्षसराज बलि ने गुरु शुक्राचार्य की सहायता से स्वर्ग तक जीत लिया। विष्णु ने वामन अवतार लेकर बलि से तीन पग भूमि दान माँगी, और तीसरे पग में उसे पाताल भेज दिया। वचन के कारण भगवान विष्णु स्वयं बलि के महल में द्वारपाल बन कर रहने लगे। देवी लक्ष्मी अपने पति से अलग होने के कारण चिंतित हुईं। उन्होंने मानव रूप धारण कर बलि को श्रावणी पूर्णिमा के दिन पीले धागे की राखी बाँधी और “भाई” मानकर वर माँगा—'मेरे स्वामी को मुझे लौटा दें।' वचनबद्ध बलि ने राखी की लाज रखते हुए विष्णु को बैकुण्ठ जाने की अनुमति दे दी। यह कथा बताती है कि राखी केवल सुरक्षा ही नहीं, समर्पण और भक्ति का बंधन भी है, जहाँ देवी ने स्वयं रक्षा-सूत्र बाँधकर पारिवारिक सुख हासिल किया।

रानी कर्मावती-हुमायूँ: इतिहास में मान-मर्यादा की मिसाल

1540 ई. के आसपास चित्तौड़गढ़ की रानी कर्मावती मेवाड़ पर गुजरात के सुल्तान बहादुर शाह के आक्रमण से चिंतित थीं। उन्होंने मुगल सम्राट हुमायूँ को राखी भेजकर 'भाई' का संबोधन किया और सहायता का आग्रह किया। इस इस्लामी शासक ने राखी की गरिमा को समझा, तत्काल सेना लेकर चित्तौड़ की ओर कूच किया। यद्यपि युद्ध तक पहुँचते-पहुँचते किला वीरगति और जौहर की विभीषिका झेल चुका था, फिर भी हुमायूँ ने कर्मावती के आत्म-सम्मान की रक्षा का संकल्प पूरा किया। यह प्रसंग दर्शाता है कि रक्षाबंधन जाति-धर्म से परे 'नारी-सम्मान' और 'सदभाव' का उत्सव है।

समकालीन महत्व और विधि-विधान

  • पूजा-पूर्व तैयारी — भाई-बहन प्रातः स्नान के बाद भगवान गणेश और कुल-देवता का आवाहन करें।
  • रक्षा-सूत्र — पीले या लाल वस्त्र में पीली रोली, चावल, दीपक और मिठाई रखें। बहन पहले तिलक लगाए, फिर चावल अर्पित कर रक्षा-सूत्र बाँधे।
  • संकल्प-मंत्र — ' येन बद्धो बलि राजा दानवेन्द्रो महाबल:।तेन त्वां प्रतिबध्नामि रक्षे मा चल मा चल॥ '
  • भाई का वचन — भौतिक उपहार से बढ़कर बहन की स्वतंत्रता, शिक्षा और सुरक्षा का वचन देना ही वास्तविक “नेग” है।
  • पर्यावरण-अनुकूल राखी — बीज-राखी या सूती धागों का प्रयोग करें; बाद में इसे मिट्टी में बोने से पौधा उगता है, जो रिश्ते की तरह बढ़ता-फलता है।

आध्यात्मिक सीख

  • कर्तव्य-परायणता: कृष्ण-द्रौपदी प्रसंग सिखाता है कि उपकार का बदला अवसर आने पर अवश्य चुकाएँ।
  • सह-अस्तित्व: लक्ष्मी-बलि कथा भक्ति और कर्तव्य के संगम की मिसाल है।
  • सांस्कृतिक समन्वय: रानी कर्मावती और हुमायूँ का प्रसंग दर्शाता है कि एक धागा शत्रुओं को भी भाई-बहन के पवित्र भाव में बाँध सकता है।

रक्षाबंधन महज़ पर्व नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति का 'मूल-मंत्र' है—दूसरे के सम्मान और सुरक्षा का संकल्प। श्रीकृष्ण का ऋण-मुक्ति उपकार हो, देवी लक्ष्मी का प्रेमपूर्ण विवेक या रानी कर्मावती का साहस—हर कथा यही कहती है कि राखी बाँधते समय हम केवल धागा नहीं, बल्कि विश्वास, संवेदना और उत्तरदायित्व को गाँठ देते हैं। 9 अगस्त की श्रावणी पूर्णिमा पर जब आप राखी बाँधें, तो इन पौराणिक प्रसंगों को स्मरण करें और संकल्प लें कि जीवन-भर एक-दूसरे के आत्म-सम्मान की रक्षा करेंगे। यही है रक्षाबंधन की शाश्वत महिमा—'सुरक्षा भी, संस्कार भी।'

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