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Satellite Control Technology: अंतरिक्ष में दूर बैठे उपग्रह तक कैसे पहुंचता है सिग्नल

Satellite Control Technology: अंतरिक्ष में दूर बैठे उपग्रह तक कैसे पहुंचता है सिग्नल

अंतरिक्ष में दूरस्थ सैटेलाइट्स को नियंत्रित करना अब उच्च तकनीक और सटीक सिग्नलिंग का कमाल बन गया है। ग्राउंड स्टेशन और मिशन कंट्रोल रेडियो और लेज़र सिग्नलों के माध्यम से कमांड भेजते, डेटा प्राप्त करते और सैटेलाइट की कक्षा बदलते हैं। आधुनिक स्वायत्त तकनीक और सुरक्षा उपाय इस प्रक्रिया को सुरक्षित और विश्वसनीय बनाते हैं।

Satellite Control: अंतरिक्ष में लाखों किलोमीटर दूर मौजूद सैटेलाइट्स को नियंत्रित करना अब संभव हो गया है। यह प्रक्रिया भारत और दुनिया के ग्राउंड स्टेशनों तथा मिशन कंट्रोल रूम के सहयोग से होती है, जहां रेडियो और लेज़र सिग्नल भेजकर कमांड दिए जाते हैं और डेटा प्राप्त किया जाता है। सैटेलाइट्स अपनी कक्षा बनाए रखते हैं और आवश्यक कार्य करते हैं। सुरक्षा और स्वायत्त तकनीक सुनिश्चित करती है कि डेटा शुद्ध पहुंचे और आपात स्थितियों में भी उपग्रह सुरक्षित रहे, जिससे अंतरिक्ष विज्ञान, नेविगेशन और दूरसंचार सेवाएँ प्रभावी बनती हैं।

ग्राउंड स्टेशन और मिशन कंट्रोल

हर सैटेलाइट के लिए एक या कई ग्राउंड स्टेशन होते हैं, जो बड़े एंटीना से रेडियो सिग्नल भेजते और प्राप्त करते हैं। मिशन कंट्रोल रूम यह तय करता है कि कौन से कमांड कब भेजे जाएँ और सैटेलाइट से मिलने वाले टेलीमीटर डेटा की निगरानी करता है। इस प्रक्रिया को Telemetry, Tracking & Command (TT&C) कहते हैं।

ग्राउंड स्टेशन लगातार सैटेलाइट का ट्रैक रखता है और आवश्यक कमांड देता है। इस तरह सैटेलाइट्स अपनी कक्षा बनाए रखते हैं और डेटा भेजते हैं।

सिग्नल का रास्ता

जब मिशन कंट्रोल कोई आदेश भेजता है, तो वह रेडियो तरंगों के रूप में ग्राउंड एंटीना से निकलता है जिसे अपलिंक कहते हैं। सैटेलाइट इसे प्राप्त कर अपने ऑन-बोर्ड कंप्यूटर के माध्यम से कमांड लागू करता है। इसके विपरीत, सैटेलाइट से भेजा गया डेटा जैसे इमेज या सिस्टम हेल्थ रिपोर्ट जमीन पर डाउनलिंक के रूप में आता है।

सिग्नल अलग-अलग फ़्रीक्वेंसी बैंड में होते हैं जैसे S-band, X-band और Ka-band, ताकि इंटरफेरेंस कम हो और डेटा ट्रांसफर तेज़ हो।

लेज़र और रीयल-टाइम कनेक्शन

कुछ मिशनों में रेडियो के बजाय लेज़र संचार का इस्तेमाल हो रहा है। लेज़र बीम हाई-स्पीड और कम हस्तक्षेप वाले लिंक देते हैं, लेकिन इसके लिए सटीक पॉइंटिंग और साफ़ मौसम की आवश्यकता होती है।

सिग्नल की सबसे बड़ी चुनौती दूरी है। लो-एर्थ ऑर्बिट (LEO) में मिलीसेकंड्स में सिग्नल पहुंचता है, जबकि जियोस्टेशनरी-ऑर्बिट (GEO) में 36,000 किलोमीटर दूरी पर लगभग 120 मिलीसेकंड का समय लगता है। सैटेलाइट और ग्राउंड स्टेशन की सापेक्ष गति से डोप्लर शिफ्ट होता है, जिसे फ़्रीक्वेंसी एडजस्टमेंट से नियंत्रित किया जाता है।

एंटीना और सटीक पॉइंटिंग

ग्राउंड स्टेशनों के बड़े डिश एंटीना और सैटेलाइट पर हाई-गैन एंटीना सटीक रूप से पॉइंट किए जाते हैं। यही सुनिश्चित करता है कि सिग्नल मजबूत और साफ़ रहे।

डेटा सुरक्षा और स्वायत्तता

कमांड और टेलीमीटर पर एन्क्रिप्शन और ऑथेंटिकेशन अनिवार्य हैं, ताकि कोई अनधिकृत व्यक्ति सैटेलाइट को नियंत्रित न कर सके। एरर-करेक्शन कोडिंग का इस्तेमाल होता है, जिससे शोर और बाधा के बावजूद डेटा सही पहुंचे।

कुछ आधुनिक सैटेलाइट अब स्वायत्त होते हैं और छोटे निर्णय जैसे पावर-मैनेजमेंट या एंटेना री-अलाइनमेंट खुद ले लेते हैं। साथ ही रेडंडेंट ग्राउंड स्टेशन और ऑटोमेटेड स्क्रिप्ट्स मिशन कंट्रोल के पास मौजूद रहते हैं ताकि आपात स्थिति में भी सैटेलाइट सुरक्षित रहे।

अंतरिक्ष में सैटेलाइट कंट्रोल करना तकनीकी और वैज्ञानिक कौशल का संगम है। ग्राउंड स्टेशन, सटीक सिग्नलिंग, डेटा सुरक्षा और स्वायत्त तकनीक के मिश्रण से ये दूरस्थ उपग्रह नियंत्रित रहते हैं। यह प्रक्रिया न केवल अंतरिक्ष विज्ञान के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि दूरसंचार, मौसम विज्ञान और नेविगेशन जैसी सेवाओं को भी सक्षम बनाती है।

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