सुप्रीम कोर्ट आज राष्ट्रपति और राज्यपाल की विधेयकों पर निर्णय लेने की समयसीमा तय करने को लेकर अहम सुनवाई करेगा, जिसमें 14 संवैधानिक सवालों पर विचार किया जाएगा।
नई दिल्ली: देश के संवैधानिक तंत्र को लेकर एक ऐतिहासिक बहस आज सुप्रीम कोर्ट के दरवाज़े पर है। सवाल बड़ा है: क्या विधानसभा से पारित विधेयकों पर राष्ट्रपति और राज्यपाल के निर्णय के लिए निश्चित समयसीमा तय की जा सकती है? आज सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संवैधानिक पीठ इस गंभीर और दूरगामी प्रभाव वाले मामले की सुनवाई करने जा रही है। इस सुनवाई में राष्ट्रपति के समक्ष उठाए गए 14 संवैधानिक सवालों पर भी रोशनी डाली जाएगी।
क्या है मामला?
यह मामला तमिलनाडु और पंजाब जैसे राज्यों से उठा जहां विधानसभा से पारित कई विधेयक महीनों तक राज्यपाल और फिर राष्ट्रपति के पास लंबित पड़े रहे। राज्य सरकारों ने इसे संघीय ढांचे और जनप्रतिनिधियों की अवहेलना बताया। इस संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल हुई जिसमें यह मांग की गई कि राष्ट्रपति और राज्यपाल के लिए एक निश्चित समयसीमा तय की जाए, ताकि विधायी प्रक्रिया समयबद्ध रूप से पूरी हो सके।
आर्टिकल 142 के तहत पहली डेडलाइन
8 अप्रैल 2024 को सुप्रीम कोर्ट की दो जजों की बेंच ने आर्टिकल 142 के तहत ऐतिहासिक आदेश दिया था कि राष्ट्रपति को राज्यपाल द्वारा भेजे गए विधेयकों पर तीन महीने के भीतर निर्णय लेना होगा। यह फैसला जस्टिस जे बी पारदीवाला और एक अन्य न्यायाधीश ने सुनाया था। अब सवाल यह उठता है कि क्या इस डेडलाइन को संवैधानिक रूप से मजबूत किया जा सकता है, और क्या इसमें राष्ट्रपति व राज्यपाल जैसे सर्वोच्च पदों की कार्यशैली पर सवाल उठाना संविधान के अनुरूप है?
आज की सुनवाई: कौन हैं जज और क्या होगा केंद्र में?
आज सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक बेंच जिसमें मुख्य न्यायाधीश (CJI) बी. आर. गवई, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस पीएस नरसिंह और जस्टिस अतुल एस चंदुरकर शामिल हैं – इस मामले की सुनवाई करेंगे। बेंच के समक्ष कई अहम बिंदु रखे जाएंगे:
- क्या राष्ट्रपति और राज्यपाल के फैसले को समयबद्ध किया जा सकता है?
- क्या विधायिका द्वारा पारित विधेयक को अनिश्चित काल तक लंबित रखा जाना संविधान के खिलाफ है?
- क्या इस प्रक्रिया में 'लोकतांत्रिक देरी' (Democratic Delay) को जायज ठहराया जा सकता है?
राष्ट्रपति के समक्ष उठाए गए 14 सवाल
याचिकाकर्ताओं द्वारा जो 14 प्रश्न राष्ट्रपति की भूमिका को लेकर उठाए गए हैं, उनमें शामिल हैं:
- विधेयकों पर निर्णय लेने में अधिकतम कितने दिन उचित हैं?
- क्या राष्ट्रपति/राज्यपाल का 'विचाराधीन' रखना ही निर्णय की कमी नहीं है?
- क्या संसद या विधानसभा में पारित विधेयकों को जनता का 'जनादेश' माना जा सकता है?
- क्या अनिश्चित देरी, सरकार की जवाबदेही को कमजोर करती है?
इन सवालों पर कोर्ट की राय न सिर्फ केंद्र और राज्यों के संबंधों को स्पष्ट करेगी, बल्कि एक नए संवैधानिक संतुलन की नींव रख सकती है।
क्या कहता है संविधान?
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 200 और 201 राज्यपाल और राष्ट्रपति को विधेयकों पर विचार करने का अधिकार देते हैं, लेकिन समयसीमा का उल्लेख नहीं किया गया है। इसी अस्पष्टता को दूर करने के लिए सुप्रीम कोर्ट से स्पष्ट दिशा-निर्देश की मांग की गई है।
केंद्र और राज्यों के बीच टकराव का मुद्दा
विशेषज्ञ मानते हैं कि हाल के वर्षों में केंद्र और कुछ राज्यों (विशेष रूप से गैर-भाजपा शासित राज्यों) के बीच टकराव की स्थिति बढ़ी है। कई विधेयकों को राज्यपाल द्वारा महीनों रोककर रखा गया, जिससे राज्यों की शिकायतें बढ़ीं। ऐसे में कोर्ट का फैसला एक 'संवैधानिक संतुलन' लाने की दिशा में अहम साबित हो सकता है।
संवैधानिक विशेषज्ञों की राय
कानूनी विशेषज्ञों का मानना है कि विधायिका का सम्मान होना चाहिए। 'जब एक राज्य की विधानसभा, जो जनता द्वारा चुनी गई है, कोई विधेयक पारित करती है, तो उसे अनिश्चित काल तक लटकाया जाना न्यायसंगत नहीं हो सकता,' वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने कहा। वहीं, कुछ विशेषज्ञ यह भी तर्क दे रहे हैं कि राष्ट्रपति और राज्यपाल की भूमिका विवेकाधीन है और समयसीमा तय करना उनके संवैधानिक अधिकारों में हस्तक्षेप माना जा सकता है।