केंद्र सरकार ने राष्ट्रपति और राज्यपालों पर विधेयकों को मंजूरी देने के लिए समय-सीमा थोपने के खिलाफ चेतावनी दी है। सरकार ने कहा कि इससे देश में संवैधानिक अराजकता पैदा होने का खतरा है।
नई दिल्ली: केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा राष्ट्रपति और राज्यपालों के लिए विधेयकों को मंजूरी देने की समय-सीमा तय करने के निर्देश पर चेतावनी दी है। सरकार का कहना है कि इस तरह की समय-सीमा संविधान में निहित शक्तियों का हड़पने जैसा है और इससे देश में सांविधानिक अराजकता पैदा हो सकती है।
सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने सुप्रीम कोर्ट में लिखित निवेदन पेश करते हुए स्पष्ट किया कि अनुच्छेद 142 में सुप्रीम कोर्ट को असाधारण शक्तियां दी गई हैं, लेकिन इसके बावजूद कोर्ट संविधान में संशोधन या संविधान निर्माताओं की मंशा को विफल नहीं कर सकता।
सुप्रीम कोर्ट का अप्रैल फैसला और समय-सीमा का निर्देश
सुप्रीम कोर्ट की एक पीठ, जिसमें न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर महादेवन शामिल थे, ने अप्रैल में तमिलनाडु सरकार द्वारा राज्यपाल के खिलाफ दायर याचिका पर फैसला देते हुए सुझाव दिया था कि राष्ट्रपति को राज्यपालों द्वारा भेजे गए लंबित विधेयकों पर तीन महीने के भीतर निर्णय लेना चाहिए, जबकि राज्यपालों के लिए विधायकों को मंजूरी देने की समय-सीमा एक माह निर्धारित की गई थी।
पीठ ने यह भी कहा कि इस समय-सीमा के उल्लंघन की स्थिति में संबंधित राज्य को उचित कारण बताना होगा। इसके साथ ही राज्यों को सहयोगात्मक होना चाहिए और विधेयक से संबंधित सवालों का उत्तर देकर राष्ट्रपति और केंद्र सरकार को सहयोग प्रदान करना चाहिए।
केंद्र सरकार का दृष्टिकोण
केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कहा कि यह समय-सीमा तय करना राज्यपाल और राष्ट्रपति की संवैधानिक शक्तियों का हनन है। तुषार मेहता ने अपने निवेदन में कहा:
'राज्यपाल और राष्ट्रपति जैसे उच्च पद राजनीतिक रूप से पूर्ण हैं और लोकतांत्रिक प्रशासन के उच्च आदर्शों का प्रतिनिधित्व करते हैं। किसी भी कथित चूक का समाधान राजनीतिक और सांविधानिक तंत्र के माध्यम से किया जाना चाहिए, न कि अवांछित न्यायिक हस्तक्षेप के जरिए।'
सरकार का कहना है कि मौजूदा प्रक्रिया में कुछ सीमित समस्याएं हो सकती हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि राष्ट्रपति और राज्यपालों को अधीनस्थों जैसा व्यवहार किया जाए।
राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू की प्रतिक्रिया
सुप्रीम कोर्ट के सुझावों और समय-सीमा निर्देश के बाद राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने कोर्ट से 14 सवाल किए थे। उनका यह कदम इस विषय की संवेदनशीलता और संविधान में विभाजन की सीमाओं को दर्शाता है। राष्ट्रपति ने स्पष्ट किया कि राष्ट्रपति और राज्यपाल केवल विधायकों के आदेशों के अनुसार काम करने वाले अधिकारी नहीं हैं, बल्कि संवैधानिक अधिकारों औलोकतांत्रिक जिम्मेदारियों के साथ पदस्थ हैं।
केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कहा कि समय-सीमा तय करना ऐसा है जैसे सरकार के किसी अंग द्वारा उन शक्तियों को अपने हाथ में लेना, जो उसमें संवैधानिक रूप से निहित नहीं हैं। यदि सुप्रीम कोर्ट द्वारा समय-सीमा थोप दी जाती है, तो इससे संविधान में वर्णित शक्तियों का पृथक्करण बिगड़ सकता है और देश में राजनीतिक अराजकता पैदा हो सकती है। सरकार का यह भी कहना है कि यह केवल प्रशासनिक निर्देश नहीं, बल्कि संवैधानिक संतुलन को प्रभावित करने वाला कदम है।
अनुच्छेद 142 और सुप्रीम कोर्ट की भूमिका
अनुच्छेद 142 सुप्रीम कोर्ट को असाधारण शक्तियां देता है, जिससे कोर्ट किसी भी मामले में अंतिम और बाध्यकारी आदेश दे सकता है। लेकिन सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने स्पष्ट किया कि ये शक्तियां संविधान में संशोधन करने या संवैधानिक प्रावधानों को बदलने के लिए नहीं हैं। उन्होंने कहा कि कोर्ट द्वारा हस्तक्षेप केवल ऐसे मामलों में होना चाहिए जहां संवैधानिक या कानूनी संकट हो और राजनीतिक या प्रशासनिक साधनों से समाधान संभव न हो।
सुप्रीम कोर्ट का अप्रैल निर्देश और समय-सीमा का मुद्दा राजनीतिक और संवैधानिक दृष्टि से संवेदनशील है। कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि यह निर्देश राष्ट्रपति और राज्यपालों की स्वतंत्रता पर असर डाल सकता है।