तेलंगाना सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में स्पष्ट किया है कि राज्यपाल को अनुच्छेद 200 के तहत किसी भी विधेयक पर निर्णय लेने में स्वतंत्र विवेकाधिकार नहीं है, बल्कि उन्हें हमेशा मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह के आधार पर ही कार्रवाई करनी होती है।
Supreme Court Governor Bound: तेलंगाना सरकार ने बुधवार को सुप्रीम कोर्ट में यह बताया कि राज्यपाल अभियोग स्वीकृति देने के मामले में भी मंत्रिपरिषद की सलाह लेने के लिए बाध्य होते हैं। हालांकि, जब कोई मंत्री या मुख्यमंत्री किसी आपराधिक मामले में शामिल हों, तब यह बाध्यता राज्यपाल पर लागू नहीं होती।
भारत के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस बीआर गवई की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ इस समय राष्ट्रपति और राज्यपालों के लिए विधेयक मंजूरी देने की समयसीमा तय करने के मामले की सुनवाई कर रही है। इस पीठ में जस्टिस गवई के अलावा जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस पीएस नरसिम्हा और जस्टिस एएस चंदुरकर भी शामिल हैं।
अनुच्छेद 200 के प्रावधान पर तेलंगाना का तर्क
तेलंगाना की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता निरंजन रेड्डी ने कहा कि अनुच्छेद 200 राज्यपाल को कुछ सीमित शक्तियां प्रदान करता है, जिसमें वे किसी विधेयक को मंजूरी देने, रोकने, पुनर्विचार के लिए लौटाने या राष्ट्रपति को भेजने का विकल्प रखते हैं। लेकिन राज्यपाल के पास इस मामले में स्वतंत्र विवेकाधिकार नहीं होता, और उन्हें मंत्रिपरिषद की सलाह के अनुसार ही निर्णय लेना होता है।
तेलंगाना सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में यह भी कहा कि राज्यपाल को अभियोजन स्वीकृति देने के मामलों में भी मंत्रिपरिषद की सलाह लेना अनिवार्य है, जब तक कि मामला किसी मंत्री या मुख्यमंत्री से संबंधित गंभीर आपराधिक विवाद का न हो। इसका मतलब यह है कि सामान्य परिस्थितियों में राज्यपाल निर्णय लेते समय अकेले नहीं रह सकते और उन्हें कार्यपालिका के निर्णय के अनुरूप कदम उठाना होगा।
संविधान पीठ की सुनवाई
यह मामला मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ के समक्ष चल रहा है। इस पीठ में न्यायमूर्ति सूर्यकांत, विक्रम नाथ, पीएस नरसिम्हा और एएस चंदुरकर भी शामिल हैं। पीठ राष्ट्रपति द्वारा भेजे गए 14 सवालों पर सुनवाई कर रही है, जिसमें यह देखा जा रहा है कि क्या न्यायालय राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर राष्ट्रपति या राज्यपाल के विवेकाधिकार के लिए समय-सीमा तय कर सकता है।
सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई के दौरान कहा कि राज्यपालों से अपेक्षा की जाती है कि वे समय पर कार्रवाई करें, भले ही अनुच्छेद 200 में “यथाशीघ्र” शब्द का उल्लेख न हो। इससे यह संकेत मिलता है कि संविधान के प्रावधानों में राज्यपाल की शक्तियों की सीमाएं स्पष्ट रूप से निर्धारित हैं और उन्हें विलंब नहीं करना चाहिए।
सुनवाई के दौरान कर्नाटक सरकार ने भी अपनी दलील रखी। उन्होंने कहा कि संविधान के तहत राष्ट्रपति और राज्यपाल केवल नाममात्र के प्रमुख हैं। वे केंद्र और राज्य दोनों स्तर पर मंत्रिपरिषद की सलाह पर काम करने के लिए बाध्य हैं, और स्वतंत्र निर्णय लेने का अधिकार नहीं रखते। कर्नाटक सरकार ने यह भी जोड़ा कि संविधान का मूल उद्देश्य यही है कि कार्यपालिका और विधायिका के बीच संतुलन बना रहे और किसी भी निर्णय में राजनीतिक पक्षपात न आए।