अहोई अष्टमी का व्रत हिंदू धर्म में संतान की लंबी उम्र और सुख-समृद्धि के लिए किया जाता है। कथा के अनुसार, एक साहूकार की बहू ने गलती से साही के बच्चे की मृत्यु कर दी थी, जिससे उसके पुत्रों पर संकट आया। सच्ची भक्ति और अहोई माता की आराधना से उसके पुत्र पुनर्जीवित हुए। यह व्रत आज भी माताओं द्वारा श्रद्धा और प्रायश्चित के प्रतीक के रूप में मनाया जाता है।
अहोई अष्टमी व्रत: हिंदू धर्म में अहोई अष्टमी का पर्व संतान की लंबी उम्र और खुशहाल जीवन के लिए मनाया जाता है। यह पर्व कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को होता है, लगभग दिवाली से एक सप्ताह पहले। कथा के अनुसार, एक साहूकार की बहू ने गलती से जंगल में एक साही के बच्चे को मार दिया, जिससे उसके सात पुत्रों पर संकट आया। पड़ोस की महिलाओं के सुझाव पर उसने अहोई माता का व्रत किया, श्रद्धा और प्रायश्चित से माता प्रसन्न हुईं और पुत्र पुनर्जीवित हुए। यह व्रत आज भी माताओं द्वारा संतान के कल्याण के लिए श्रद्धा के साथ मनाया जाता है।
अहोई अष्टमी का धार्मिक महत्व
हिंदू धर्म में अहोई अष्टमी का व्रत संतान की लंबी उम्र और सुखी जीवन के लिए किया जाता है। यह पर्व कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मनाया जाता है, जो दिवाली से लगभग एक सप्ताह पहले आती है। इस दिन माताएं उपवास रखकर अहोई माता की पूजा करती हैं और संतान की रक्षा तथा समृद्धि की कामना करती हैं।
कहा जाता है कि यह व्रत न केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक है, बल्कि इसमें एक गहरी कथा छिपी है, जो पाप, प्रायश्चित और करुणा का संदेश देती है। इस कथा के माध्यम से यह सिखाया गया है कि सच्चे पश्चाताप और भक्ति से देवी-देवता भी प्रसन्न हो जाते हैं और अपने भक्तों को क्षमा प्रदान करते हैं।
साहूकार का सुखी परिवार और बहू का दुख
बहुत समय पहले एक नगर में एक साहूकार रहता था, जिसके सात पुत्र थे। उसका परिवार समृद्ध और खुशहाल था, लेकिन घर की बहू मन से दुखी रहती थी क्योंकि उसकी कोई संतान नहीं थी। परिवार के बाकी सदस्य संपन्न और प्रसन्न थे, परंतु बहू की गोद सूनी होने के कारण उसका मन हमेशा उदास रहता था।
कार्तिक मास की अष्टमी से कुछ दिन पहले वह अपने घर की सजावट और लीपाई के लिए जंगल में मिट्टी लेने गई। उसका उद्देश्य घर को सुंदर बनाना था, लेकिन वहीं उसने एक ऐसी भूल कर दी जिसने उसके जीवन को पूरी तरह बदल दिया।
एक भूल जिसने बदल दी किस्मत
जब साहूकार की बहू मिट्टी खोद रही थी, तो अनजाने में उसकी कुदाल एक साही (नेवले जैसे जंगली जीव) के बच्चे पर जा लगी। वह मासूम साही का बच्चा वहीं मर गया। यह देखकर बहू भयभीत हो गई। उसे एहसास हुआ कि उसने बहुत बड़ा पाप कर दिया है। अपराधबोध और पश्चाताप में डूबी वह घर लौट आई।
कुछ ही समय बाद उसके जीवन में अंधकार छा गया। साहूकार के सातों बेटे बीमार पड़ गए और धीरे-धीरे सभी की मृत्यु हो गई। घर का सुख-चैन मिट्टी में मिल गया। बहू को समझ आ गया कि यह सब उसी गलती का परिणाम है जो उसने जंगल में की थी। उसका दिल पछतावे से भर गया।
प्रायश्चित और अहोई माता की आराधना
जब बहू अपने गहरे दुख में डूबी हुई थी, तब पड़ोस की महिलाओं ने उसे अहोई माता का व्रत करने की सलाह दी। उन्होंने कहा कि सच्ची श्रद्धा और भक्ति से यदि अहोई माता की आराधना की जाए, तो वह सभी पापों को क्षमा कर देती हैं और संतान का आशीर्वाद प्रदान करती हैं।
साहूकार की बहू ने निश्चय किया कि वह पूरी श्रद्धा के साथ अहोई माता का व्रत करेगी। कार्तिक मास की कृष्ण अष्टमी के दिन उसने दीवार पर साही और अपने मृत सात पुत्रों की आकृतियां बनाईं। उसने दीप जलाया, पूजा की और देवी अहोई से क्षमा मांगी।
पूरे दिन व्रत रखने के बाद रात को तारों को अर्घ्य देकर उसने माता से प्रार्थना की कि वे उसका अपराध माफ करें और उसके जीवन में फिर से खुशियां लौटाएं।
देवी अहोई की कृपा और पुत्रों का पुनर्जीवन
बहू की सच्ची भक्ति और गहरी पश्चाताप भावना से अहोई माता प्रसन्न हुईं। रात में देवी ने उसे दर्शन दिए और कहा, “तुम्हारा पाप क्षमा हुआ। तुम्हारे सभी पुत्र पुनः जीवित होंगे और उन्हें लंबी आयु का आशीर्वाद मिलेगा।”
अगली सुबह जब बहू ने आंखें खोलीं तो उसने देखा कि उसके सभी पुत्र जीवित हैं और स्वस्थ हैं। यह देखकर उसका हृदय आनंद और कृतज्ञता से भर गया। उसने अहोई माता का आभार व्यक्त किया और यह प्रण लिया कि हर वर्ष इसी दिन वह माता की पूजा करेगी।
क्यों मनाया जाता है अहोई अष्टमी व्रत
इसी घटना के बाद से अहोई अष्टमी का व्रत हिंदू समाज में प्रचलित हुआ। इस दिन माताएं सूर्योदय से पहले उठकर व्रत का संकल्प लेती हैं। दिनभर जल तक नहीं पीतीं और शाम को तारों को अर्घ्य देने के बाद व्रत खोलती हैं। पूजा के दौरान दीवार या पूजा स्थल पर अहोई माता और साही की आकृति बनाई जाती है।
इस व्रत के दौरान माताएं यह कामना करती हैं कि उनके बच्चों का जीवन लंबा, स्वस्थ और सुखमय हो। कई स्थानों पर अहोई माता की मूर्ति या चित्र पर धागा चढ़ाकर प्रार्थना की जाती है कि परिवार में हमेशा खुशहाली बनी रहे।
अहोई अष्टमी से जुड़ी मान्यताएं
धार्मिक ग्रंथों में कहा गया है कि अहोई माता भगवान शिव और माता पार्वती का ही एक रूप हैं। यह व्रत माताओं के मातृत्व की शक्ति और समर्पण का प्रतीक है। ऐसा माना जाता है कि जो स्त्री यह व्रत सच्चे मन से करती है, उसकी संतान पर कभी संकट नहीं आता।
कई परिवारों में यह परंपरा पीढ़ियों से चली आ रही है। बच्चे जब तक वयस्क न हो जाएं, तब तक माताएं अहोई व्रत करती रहती हैं। यह व्रत केवल पुत्र-संतान के लिए नहीं, बल्कि पुत्री-संतान की समृद्धि के लिए भी समान रूप से किया जाता है।
आस्था और आध्यात्मिकता का संगम
अहोई अष्टमी केवल एक धार्मिक परंपरा नहीं, बल्कि मातृत्व की भावनाओं और त्याग का प्रतीक है। यह पर्व यह सिखाता है कि किसी भूल या पाप के बाद भी सच्चे मन से पश्चाताप किया जाए तो देवी-देवता क्षमा कर देते हैं। यह दिन करुणा, भक्ति और क्षमा के मूल्यों को याद दिलाता है