हर वर्ष जब आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि आती है, तब संपूर्ण हिंदू समाज एक अत्यंत पावन और आध्यात्मिक क्षण का साक्षी बनता है—यह दिन होता है देवशयनी एकादशी का। यह केवल एक धार्मिक पर्व नहीं, बल्कि जीवन को तप, संयम और साधना की ओर मोड़ने का एक प्रेरणादायक काल भी है।
क्या है देवशयनी एकादशी?
देवशयनी एकादशी, जिसे हरिशयनी या पद्मा एकादशी भी कहा जाता है, वह तिथि है जब भगवान विष्णु क्षीरसागर में शेषनाग की शैया पर योगनिद्रा में प्रवेश करते हैं। यह स्थिति कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी तक बनी रहती है, जब वे प्रबोधिनी एकादशी के दिन पुनः जाग्रत होते हैं।
इन चार महीनों को चातुर्मास कहा जाता है। यह समय योग, ध्यान, व्रत, उपवास और तप का होता है। संत-महात्मा इस काल में यात्राएं छोड़कर एक स्थान पर रहकर साधना में लीन रहते हैं। गृहस्थ भी इस अवधि में सात्विक जीवन अपनाने का प्रयास करते हैं।
देवशयनी एकादशी 2025 में कब है?
वर्ष 2025 में देवशयनी एकादशी 8 जुलाई, मंगलवार को मनाई जाएगी। यह तिथि आध्यात्मिक शक्ति संचय का अवसर मानी जाती है।
धार्मिक और खगोलीय महत्व
‘हरि’ शब्द का उपयोग केवल विष्णु के लिए ही नहीं बल्कि सूर्य, चंद्रमा और वायु जैसे तत्वों के लिए भी होता है। ‘हरिशयन’ का अर्थ होता है — सृष्टि के ऊर्जात्मक तत्वों का विश्राम। वर्षा ऋतु में जब सूर्य की रोशनी कम हो जाती है और जल तत्व की अधिकता होती है, तब शरीर और वातावरण दोनों पर एक विशिष्ट प्रभाव पड़ता है। शरीर की पाचन शक्ति कमजोर होती है और रोगों की संभावना बढ़ती है।
इसलिए ऋषियों ने इस समय संयम और सात्विकता का पालन करने की शिक्षा दी, जिससे शरीर और आत्मा दोनों की रक्षा की जा सके।
व्रत और पूजन विधि
देवशयनी एकादशी का व्रत निराहार या फलाहार रहकर किया जाता है। श्रद्धालु रात भर जागरण करते हैं और विष्णु सहस्रनाम, भगवद्गीता, हरिवंश पुराण आदि का पाठ करते हैं। मंदिरों में भजन-कीर्तन और कथा-प्रवचन का आयोजन होता है।
पूजन विधि इस प्रकार है:
- प्रातः स्नान कर स्वच्छ वस्त्र धारण करें।
- व्रत का संकल्प लें और भगवान विष्णु का ध्यान करें।
- मंदिर में पीले फूल, तुलसी दल, पंचामृत से भगवान का पूजन करें।
- दिनभर भजन, कीर्तन, ध्यान और दान में समय बिताएं।
- अगले दिन पारण करके व्रत का समापन करें।
चातुर्मास: संयम और आत्मिक जागरण का समय
देवशयनी एकादशी से लेकर प्रबोधिनी एकादशी तक के चार महीने — वर्षा ऋतु में आते हैं। इन्हें चातुर्मास कहा जाता है। इस समय:
- विवाह, गृह प्रवेश और अन्य मांगलिक कार्य वर्जित होते हैं।
- साधु-संत यात्रा नहीं करते, एक स्थान पर रुककर ज्ञान-चिंतन करते हैं।
- आमजन को भी मांसाहार, मद्यपान, लहसुन-प्याज और तमोगुणी आचरण से बचना चाहिए।
- यह समय शरीर की रक्षा और आत्मा की उन्नति के लिए अत्यंत उपयुक्त है।
आध्यात्मिक और सामाजिक संदेश
देवशयनी एकादशी केवल भगवान विष्णु की योगनिद्रा की कथा नहीं है, बल्कि यह एक जीवन-दर्शन है। यह हमें यह सिखाती है कि हर व्यक्ति को वर्ष में कुछ समय ऐसा निकालना चाहिए, जब वह सांसारिक व्यस्तताओं से हटकर आत्मचिंतन करे।
चातुर्मास में संयमित जीवनशैली अपनाने का जो संदेश हमारे शास्त्र देते हैं, वह आज के भौतिकतावादी समाज के लिए भी उतना ही प्रासंगिक है। यह समय है पर्यावरण के प्रति जिम्मेदारी निभाने का, संयमित आहार लेने का, और सेवा-कार्य से जुड़े रहने का।
देवशयनी एकादशी हमें जीवन को पुनः सात्विकता और आध्यात्मिकता की ओर ले जाने का एक अवसर देती है। यह दिन आत्मा को प्रभु के चरणों में समर्पित करने का दिन है। जब हम संयम, सेवा, साधना और भक्ति के मार्ग पर चलते हैं, तब ही जीवन में स्थायी शांति और सुख की अनुभूति होती है।