सुप्रीम कोर्ट ने K.S. शिवप्पा बनाम Smt. K. नीलम्मा मामले में फैसला सुनाया कि नाबालिग बच्चों की संपत्ति उनके अभिभावक द्वारा बेची गई हो तो बच्चे 18 साल की उम्र के बाद उस सौदे को रद्द कर सकते हैं। इसके लिए जरूरी नहीं कि कोर्ट में केस दर्ज किया जाए; बच्चे अपने व्यवहार से भी पुराने सौदे को अस्वीकार कर सकते हैं।
Property deals: सुप्रीम कोर्ट ने K.S. शिवप्पा बनाम Smt. K. नीलम्मा मामले में अहम फैसला सुनाते हुए कहा कि नाबालिग की ओर से अभिभावक द्वारा की गई संपत्ति की बिक्री को बालिग होने के बाद बच्चा रद्द कर सकता है। केस कर्नाटक के शमनूर गांव की दो प्लॉट्स से जुड़ा था, जिन्हें 1971 में नाबालिग बेटों के नाम पर खरीदा गया था और बाद में बिना कोर्ट की अनुमति बेचा गया। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि बच्चे अपने स्पष्ट और ठोस कदम जैसे संपत्ति को दोबारा बेचना या ट्रांसफर करना अपनाकर भी पुराने सौदे को अस्वीकार कर सकते हैं।
कर्नाटक का केस बना मिसाल
यह फैसला K.S. शिवप्पा बनाम Smt. K. नीलम्मा मामले में आया। मामला कर्नाटक के शमनूर गांव की दो प्लॉट्स से जुड़ा था। 1971 में रुद्रप्पा नाम के व्यक्ति ने अपने तीन नाबालिग बेटों के नाम पर ये प्लॉट खरीदे थे। बाद में उन्होंने बिना कोर्ट की अनुमति के इन्हें बेच दिया। कई साल बाद जब बेटे बालिग हुए, तो उन्होंने वही जमीनें K.S. शिवप्पा को बेच दी। इस पर पहले खरीदारों ने अपना हक जताया और विवाद शुरू हो गया।
निचली अदालतों में इस बात पर मतभेद थे कि क्या बच्चों को पहले वाले सौदे को रद्द करने के लिए मुकदमा दायर करना जरूरी है। सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा कि हर मामले में केस दायर करना अनिवार्य नहीं है। अगर व्यक्ति अपने व्यवहार से दिखा देता है कि वह पुराने सौदे को मान्यता नहीं देता, जैसे कि वह खुद संपत्ति बेच देता है, तो यह पर्याप्त है।
सुप्रीम कोर्ट की अहम टिप्पणी
जस्टिस मिथल ने फैसले में कहा कि अगर किसी अभिभावक ने नाबालिग की ओर से कोई सौदा किया है, तो बच्चा बालिग होने के बाद उस सौदे को या तो अदालत में चुनौती देकर या अपने साफ-साफ व्यवहार से अस्वीकार कर सकता है। कोर्ट ने यह भी माना कि कई बार बच्चों को यह पता भी नहीं होता कि उनकी संपत्ति पहले बेची जा चुकी है या वे अब भी उसी संपत्ति में रह रहे होते हैं। ऐसे मामलों में मुकदमा दायर करना जरूरी नहीं होता।
बच्चे सीधे अपने अधिकार दिखा सकते हैं

सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि बच्चे बालिग होने के बाद अपने अधिकारों का इस्तेमाल करने में स्वतंत्र हैं। अदालत ने कहा कि केवल शिकायत करना या मुकदमा दायर करना ही विकल्प नहीं है। बच्चे अपने व्यवहार और कदमों के जरिए यह दिखा सकते हैं कि वे पुराने सौदे को स्वीकार नहीं करते। इसके तहत संपत्ति को स्वयं ट्रांसफर करना, बेच देना या किसी और को हस्तांतरित करना पर्याप्त होगा।
दिल्ली हाईकोर्ट ने भी दिया अहम फैसला
एक अन्य पारिवारिक संपत्ति विवाद में दिल्ली हाईकोर्ट ने भी महत्वपूर्ण टिप्पणी की। कोर्ट ने कहा कि पत्नी को ससुराल में रहने का अधिकार है, भले ही उसके पति ने अपने माता-पिता द्वारा उसे बेदखल कर दिया हो। जस्टिस संजीव नरूला ने कहा कि शादी के बाद पत्नी जब अपने पति के घर में रहती है, तो वह साझा गृह यानी shared household माना जाएगा। इसलिए उसे वहां से हटाया नहीं जा सकता।
इस मामला 2010 की शादी से जुड़ा था, जिसमें बाद में पति ने घर छोड़ दिया और कहा कि उसे परिवार से अलग कर दिया गया। सास-ससुर ने बहू को घर से निकालने की कोशिश की और दावा किया कि घर मृत पिता की व्यक्तिगत संपत्ति है। ट्रायल कोर्ट और हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया कि सिर्फ पति के बेदखल होने के आधार पर बहू को नहीं निकाला जा सकता। अदालत ने फैसला दिया कि सास ऊपरी मंजिल पर रहेंगी और बहू निचली मंजिल पर रहना जारी रख सकती है, ताकि दोनों पक्षों के अधिकारों में संतुलन बना रहे।













