हिंदू धर्म में आषाढ़ माह की शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी से सावन पूर्णिमा तक मनाया जाने वाला कोकिला व्रत स्त्रियों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण व्रत माना जाता है। खासकर विवाहित महिलाएं इस व्रत को सौभाग्य और दांपत्य सुख की प्राप्ति के लिए करती हैं। इस व्रत में मां भगवती के कोयल रूप की पूजा की जाती है।
कब से शुरू हो रहा है कोकिला व्रत 2025
इस बार कोकिला व्रत 10 जुलाई 2025, गुरुवार से शुरू हो रहा है। इसी दिन गुरु पूर्णिमा का पर्व भी मनाया जा रहा है। कोकिला व्रत एक माह तक चलता है और सावन मास की पूर्णिमा तक इसका पालन किया जाता है। मान्यता है कि इस व्रत को श्रद्धा और नियम से करने पर सौभाग्य, संतान सुख और गृहस्थ जीवन में आनंद बना रहता है।
कोकिला व्रत से जुड़ी पौराणिक कथा
कोकिला व्रत की कथा का उल्लेख शिव पुराण में मिलता है। कथा के अनुसार, माता सती ने भगवान शिव को पति रूप में पाने के लिए कठोर तपस्या की थी। वे राजा दक्ष की पुत्री थीं और शिव जी से उनका विवाह हुआ। राजा दक्ष भगवान विष्णु के भक्त थे और उन्हें भगवान शिव से बैर था।
शिव-सती के विवाह से दक्ष बेहद क्रोधित हुए और अपनी पुत्री से सभी संबंध समाप्त कर दिए। कुछ समय पश्चात दक्ष ने एक भव्य यज्ञ का आयोजन किया जिसमें सभी देवी-देवताओं को आमंत्रित किया लेकिन भगवान शिव को नहीं बुलाया। जब यह बात सती को पता चली, तो वे शिव जी से बिना बुलाए अपने पिता के यज्ञ में जाने की अनुमति मांगती हैं।
शिव जी उन्हें समझाते हैं लेकिन सती नहीं मानतीं और यज्ञ में पहुंच जाती हैं। वहां पिता दक्ष द्वारा शिव जी का अपमान देखकर सती अत्यंत क्रोधित हो जाती हैं और यज्ञ अग्नि में कूदकर अपने प्राण त्याग देती हैं।
जब भगवान शिव को इस घटना का पता चलता है, तो वे यज्ञ स्थल पर पहुंचते हैं और यज्ञ को नष्ट कर देते हैं। दक्ष का गर्व भी चूर कर देते हैं। सती के आत्मदाह से शोक में डूबे शिव जी उन्हें कोयल बनने का श्राप देते हैं। देवी सती हजारों वर्षों तक कोयल के रूप में तपस्या करती हैं और फिर पार्वती रूप में जन्म लेकर शिव जी को पुनः प्राप्त करती हैं।
इसी घटना की स्मृति में कोकिला व्रत का पालन किया जाता है।
कोकिला व्रत की पूजा विधि
इस व्रत में महिला श्रद्धालु गंगा स्नान या तीर्थ स्नान करती हैं। अगर घर पर ही व्रत कर रही हों तो गंगाजल मिले जल से स्नान कर सकती हैं।
इसके बाद कोकिला पक्षी की मिट्टी की मूर्ति बनाई जाती है या खरीदकर लाई जाती है। मूर्ति को पूजा स्थान पर स्थापित कर लाल पुष्प, चंदन, तिल, चावल, दूर्वा आदि से विधिपूर्वक पूजन किया जाता है।
एक विशेष मंत्र का जाप किया जाता है
"तिलसहे तिलसौख्ये तिलवर्ण तिलप्रिये, सौभाग्यद्रव्यपुत्रास्रच देहि में कोकिले नमः"
इसके बाद आरती की जाती है और कथा पाठ किया जाता है।
गुरु वशिष्ठ ने उन्हें कोकिला व्रत का विधान बताया।
उन्होंने बताया कि आषाढ़ पूर्णिमा को संकल्प लेकर सावन मास की पूर्णिमा तक इस व्रत को करना चाहिए। इस दौरान तिल और औषधियों से उबटन लगाकर नदी या तीर्थ में स्नान करें, भूमि पर शयन करें, ब्रह्मचर्य का पालन करें और रात्रि में तारों की छांव में भोजन करें।
व्रत की मुख्य विशेषताएं
- तिल को पीसकर कोकिला पक्षी की मूर्ति बनानी चाहिए
- लाल चंदन, लाल पुष्प, अगरबत्ती से पूजा करें
- व्रत समाप्ति के बाद कोकिला की मूर्ति को वस्त्र व दक्षिणा सहित ब्राह्मण को दान करें
- पूरे महीने नियम, संयम और श्रद्धा से यह व्रत करें
कोकिला व्रत का महत्व अविवाहित कन्याओं के लिए भी
यह व्रत विवाहित महिलाओं के साथ-साथ अविवाहित कन्याओं के लिए भी अत्यंत फलदायी माना जाता है। जो कन्याएं अच्छे वर की कामना करती हैं, वे इस व्रत को श्रद्धा से करें तो उन्हें योग्य वर की प्राप्ति होती है।