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इंदिरा गांधी की इमरजेंसी पर थरूर का हमला, लोकतंत्र को बताया सबसे बड़ा पीड़ित

इंदिरा गांधी की इमरजेंसी पर थरूर का हमला, लोकतंत्र को बताया सबसे बड़ा पीड़ित

शशि थरूर ने इमरजेंसी को लोकतंत्र के लिए चेतावनी बताया। उन्होंने लिखा कि आज़ादी धीरे-धीरे छीनी जाती है। उन्होंने इंदिरा गांधी के फैसले और संजय गांधी की नीतियों की आलोचना की।

Shashi Tharoor: कांग्रेस सांसद शशि थरूर ने 1975 में लागू की गई इमरजेंसी पर एक विस्तृत लेख लिखा है, जिसमें उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के फैसले की आलोचना करते हुए इसे लोकतंत्र के लिए एक बड़ा सबक बताया है। उन्होंने साफ कहा कि आज का भारत 1975 के भारत से अलग है, लेकिन इमरजेंसी की चेतावनी आज भी उतनी ही प्रासंगिक है।

आज़ादी कैसे छीनी जाती है, इमरजेंसी उसका उदाहरण

थरूर ने लिखा कि इमरजेंसी ने यह दिखा दिया कि आज़ादी कैसे धीरे-धीरे छीनी जाती है। पहले छोटे अधिकार छीनते हैं, फिर धीरे-धीरे पूरा लोकतंत्र खतरे में आ जाता है। यह सब ऐसे मकसदों के नाम पर होता है जो सुनने में सही लग सकते हैं। लेकिन जब तक लोगों को समझ आता है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। यही वजह है कि लोकतंत्र के समर्थकों को हमेशा सजग रहना चाहिए।

सत्तावाद और डर का माहौल

थरूर के अनुसार, इंदिरा गांधी का सत्तावादी दृष्टिकोण देश को डर और दमन के दौर में ले गया। उन्होंने लिखा कि जून 1975 से मार्च 1977 तक चले इस दौर में नागरिक अधिकारों को निलंबित कर दिया गया। विपक्ष के नेताओं को जेलों में बंद किया गया और मीडिया की आवाज को दबा दिया गया। यह सब उस समय के "अनुशासन" के नाम पर किया गया।

संजय गांधी और जबरन नसबंदी अभियान

थरूर ने इमरजेंसी के दौरान हुए जबरन नसबंदी अभियानों का भी जिक्र किया। उन्होंने लिखा कि संजय गांधी के नेतृत्व में ग्रामीण और गरीब इलाकों में जबरदस्ती नसबंदी कराई गई। इन अभियानों में लक्ष्य हासिल करने के लिए हिंसा और ज़बरदस्ती का सहारा लिया गया। यह सब सरकार द्वारा नियंत्रित अनुशासन के नाम पर किया गया, जबकि असल में यह क्रूरता थी।

झुग्गी-झोपड़ियों का विध्वंस और लोगों की बेघरगी

इमरजेंसी के दौरान दिल्ली जैसे शहरों में झुग्गी-झोपड़ियों को बेरहमी से तोड़ा गया। हजारों लोगों को बेघर कर दिया गया। थरूर लिखते हैं कि सरकार ने इन लोगों की दुर्दशा की कोई चिंता नहीं की। उनके पुनर्वास या कल्याण की दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया।

लोकतांत्रिक संस्थाओं की कमजोरी उजागर हुई

थरूर के अनुसार, इमरजेंसी ने यह साफ कर दिया कि लोकतंत्र की संस्थाएं कितनी कमजोर हो सकती हैं, भले ही वे बाहर से मजबूत नजर आती हों। सरकार ने नैतिक जिम्मेदारी और जनता के प्रति जवाबदेही को नजरअंदाज कर दिया। सत्ता में बने रहने की इच्छा ने संवैधानिक मूल्यों को कुचल दिया।

न्यायपालिका और मीडिया भी दबाव में

लेख में थरूर ने लिखा कि सुप्रीम कोर्ट तक सरकार के दबाव में आ गया और बंदी प्रत्यक्षीकरण जैसे अधिकारों को निलंबित कर दिया गया। पत्रकारों, कार्यकर्ताओं और विपक्षी नेताओं को जेल में डाल दिया गया। न्यायिक प्रक्रिया कमजोर पड़ गई और संवैधानिक मूल्यों का हनन हुआ।

मानवाधिकारों का हनन और एक्स्ट्रा-ज्यूडिशियल हत्याएं

थरूर ने लेख में यह भी बताया कि हिरासत में लोगों को प्रताड़ित किया गया और बड़ी संख्या में एक्स्ट्रा-ज्यूडिशियल हत्याएं की गईं। इन घटनाओं ने सत्ता के विरोध में खड़े लोगों को बर्बरतापूर्वक कुचल दिया। यह सब दर्शाता है कि जब सत्ता निरंकुश हो जाती है, तो वह कैसे लोकतंत्र को खत्म कर सकती है।

आज का भारत ज्यादा आत्मविश्वासी

थरूर मानते हैं कि आज का भारत 1975 के भारत से बहुत अलग है। हम अधिक समृद्ध, आत्मविश्वासी और मजबूत लोकतंत्र बन चुके हैं। फिर भी, इमरजेंसी के अनुभव हमें यह समझाते हैं कि सत्ता केंद्रीकरण, आलोचना को दबाने और संवैधानिक संरचनाओं को दरकिनार करने की प्रवृत्ति कभी भी फिर से उभर सकती है।

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