सुप्रीम कोर्ट में शुक्रवार को एक जनहित याचिका (PIL) पर सुनवाई के दौरान यह सवाल उठा कि क्या देशभर के जेलों में बंद लगभग 4.5 लाख विचाराधीन कैदियों को मतदान का अधिकार दिया जाना चाहिए। याचिका की पैरवी सुप्रीम कोर्ट में वकील प्रशांत भूषण ने की।
नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को केंद्र और चुनाव आयोग से पूछा कि क्या देशभर के जेलों में बंद लगभग 4.5 लाख विचाराधीन कैदियों को भी मतदान का अधिकार मिलना चाहिए। यह सवाल एक जनहित याचिका (PIL) की सुनवाई के दौरान किया गया। सुप्रीम कोर्ट में सीजेआई बीआर गवई की अगुवाई वाली बेंच ने इस मामले में दोनों पक्षों से राय मांगी।
जनहित याचिका के पक्ष में वकील प्रशांत भूषण ने पैरवी करते हुए अंतरराष्ट्रीय लोकतांत्रिक मानदंडों का हवाला दिया और सवाल उठाया कि पूरी तरह से इस तरह की पाबंदी कैसे लगाई जा सकती है।
क्या है मामला?
यह जनहित याचिका पंजाब के पटियाला की निवासी सुनीता शर्मा ने दायर की है। याचिका में कहा गया कि जो कैदी किसी अपराध में दोषी साबित नहीं हुए हैं, उन्हें वोट डालने से रोकना लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन है। याचिका में केंद्र सरकार और चुनाव आयोग को प्रतिवादी बनाया गया है। याचिकाकर्ता का तर्क है कि भारतीय संविधान और जनप्रतिनिधित्व कानून, 1951 की धारा 62(5) केवल सजायाफ्ता कैदियों पर लागू होनी चाहिए, जबकि जो लोग सिर्फ विचाराधीन हैं या एहतियाती हिरासत में हैं, उन्हें मताधिकार से वंचित नहीं किया जाना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई
सुप्रीम कोर्ट में मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई और जस्टिस के. विनोद चंद्रन की पीठ ने इस याचिका पर सुनवाई की। वकील प्रशांत भूषण ने अदालत को बताया कि विचाराधीन कैदियों के मताधिकार पर पूरी तरह से रोक अंतरराष्ट्रीय लोकतांत्रिक मानदंडों का उल्लंघन है। भूषण ने कहा,
'सजायाफ्ता लोग चुनाव लड़ने की अनुमति रखते हैं और कानून बनाने की प्रक्रिया को प्रभावित कर सकते हैं। ऐसे में एक सामान्य नागरिक, जो दोषी भी नहीं ठहराया गया है, उसे मताधिकार से वंचित करना न्यायसंगत नहीं है।'
अदालत ने इस मामले में केंद्र और चुनाव आयोग को नोटिस जारी किया है और उनसे इस विषय पर स्पष्ट राय और जवाब मांगा है। धारा 62(5) के अनुसार, जेल में बंद व्यक्ति मतदान नहीं कर सकता, चाहे वह सजायाफ्ता हो या पुलिस हिरासत में हो। हालांकि, यदि किसी को कानून के तहत एहतियाती हिरासत में रखा गया है, तो यह नियम उस पर लागू नहीं होता।
याचिकाकर्ता का कहना है कि यह कानून विचाराधीन कैदियों के सार्वजनिक प्रतिनिधि चुनने के अधिकार को अनुचित रूप से बाधित करता है। सुप्रीम कोर्ट अब यह देखेगा कि धारा 62(5) का प्रावधान कितना न्यायसंगत है और क्या विचाराधीन कैदियों को मताधिकार देने पर विचार किया जा सकता है।