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आज ही के दिन लड़ी गई थी पानीपत की दूसरी लड़ाई: जब अकबर ने हेमू विक्रमादित्य का सिर काटकर भेजा था काबुल

आज ही के दिन लड़ी गई थी पानीपत की दूसरी लड़ाई: जब अकबर ने हेमू विक्रमादित्य का सिर काटकर भेजा था काबुल

आज से ठीक 469 साल पहले, यानी 5 नवंबर 1556 को, भारत के इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण लड़ाइयों में से एक — पानीपत की दूसरी जंग — लड़ी गई थी। यह युद्ध मुग़ल साम्राज्य के भविष्य को तय करने वाला साबित हुआ।

Battle of Panipat: आज से 469 साल पहले, यानी 5 नवंबर 1556 को उत्तर भारत की धरती पर एक ऐसी ऐतिहासिक जंग लड़ी गई थी जिसने भारत के राजनीतिक भविष्य की दिशा ही बदल दी। यह थी पानीपत की दूसरी लड़ाई, जिसमें एक ओर थे 13 वर्षीय मुगल सम्राट अकबर और उनके संरक्षक बैरम खान, जबकि दूसरी ओर थे हिंदू सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य, जिन्हें इतिहास में हेमू के नाम से जाना जाता है।

इस निर्णायक युद्ध में हेमू की वीरता और रणनीति के बावजूद अंततः मुगल सेना विजयी रही। एक तीर ने न सिर्फ युद्ध का रुख बदला बल्कि भारत की सत्ता की कहानी को भी नई दिशा दी।

सामान्य व्यापारी से हिंदू सम्राट बनने तक हेमू की यात्रा

हेमचंद्र विक्रमादित्य की कहानी असाधारण है। हरियाणा के रेवाड़ी में जन्मे हेमू एक सामान्य व्यापारी परिवार से थे। अपनी योग्यता, बुद्धिमत्ता और सैन्य कौशल के दम पर वे अफगान शासक शेर शाह सूरी और बाद में उनके पुत्र इस्लाम शाह सूरी के विश्वासपात्र बने। 1554 में इस्लाम शाह की मृत्यु के बाद सूरी वंश में उत्तराधिकार को लेकर संघर्ष शुरू हो गया। 

इसी दौरान हुमायूं ने अफगानों की कमजोर स्थिति का फायदा उठाते हुए दिल्ली और आगरा पर पुनः कब्जा कर लिया। लेकिन जनवरी 1556 में हुमायूं की अचानक मृत्यु हो गई, और उनकी जगह किशोर पुत्र अकबर को गद्दी पर बैठाया गया।

दिल्ली और आगरा पर हेमू का कब्जा

हुमायूं की मौत के बाद सत्ता शून्य का लाभ उठाते हुए हेमू ने अपने सैन्य अभियान शुरू किए। उन्होंने बयाना, इटावा, संभल, कालपी, इटावा और नरनौल तक मुगलों को पराजित किया। 7 अक्टूबर 1556 को हेमू ने दिल्ली में प्रवेश किया और पुराना किला (Old Fort) में स्वयं को “सम्राट विक्रमादित्य” घोषित किया — यह किसी हिंदू शासक द्वारा दिल्ली की गद्दी पुनः हासिल करने की ऐतिहासिक घटना थी।

परंतु उनकी सफलता अधिक समय तक नहीं टिक सकी। बैरम खान ने युवा अकबर के नेतृत्व में दिल्ली पुनः जीतने की योजना बनाई, और दोनों सेनाएं पानीपत के मैदान में आमने-सामने आ गईं।

पानीपत का दूसरा युद्ध – 5 नवंबर 1556

पानीपत का युद्ध भारत की सबसे निर्णायक लड़ाइयों में से एक था। मुगल सेना का नेतृत्व अली कुली खान शैबानी कर रहे थे, जिनके पास लगभग 10,000 घुड़सवार और सुसंगठित तोपखाना था। मुगलों की दाहिनी पंक्ति का नेतृत्व सिकंदर खान उज्बक, जबकि बाईं पंक्ति का नेतृत्व अब्दुल्ला खान उज्बक के पास था।

दूसरी ओर हेमू की सेना संख्यात्मक रूप से अधिक थी — लगभग 30,000 घुड़सवार और 500 युद्ध हाथी। हर हाथी पर लोहे का कवच और तीरंदाज सवार थे।हेमू स्वयं “हवाई” नामक हाथी पर सवार होकर सेना का नेतृत्व कर रहे थे। उनके पास 22 लड़ाइयों का अनुभव था, लेकिन इस बार उनके पास पर्याप्त तोपें नहीं थीं — जो अंततः उनकी हार का कारण बनीं।

युद्ध का निर्णायक मोड़ – एक तीर जिसने इतिहास बदल दिया

युद्ध की शुरुआत हेमू की ओर से हुई। उनके हाथियों की अग्रिम टुकड़ी ने मुगल सेना पर जबरदस्त हमला बोला। शुरुआती झटके में मुगल पंक्ति बिखरने लगी, लेकिन उनकी घुड़सवार टुकड़ी ने तेजी से जवाब दिया और हेमू की सेना पर चारों ओर से तीरों की बारिश कर दी। जंग के बीच अली कुली खान ने पीछे से हेमू के तोपखाने पर कब्जा कर लिया। 

यह रणनीतिक भूल हेमू के लिए घातक साबित हुई। इसी बीच एक तीर आकर हेमू की आंख में लगा, और वे बेहोश होकर गिर पड़े। उनके गिरते ही अफगान सेना में अफरातफरी मच गई। बिना नेता के सेना ने युद्धक्षेत्र छोड़ दिया और मुगलों ने निर्णायक जीत हासिल कर ली।

दो गलतियां जिन्होंने बदल दिया भारत का भविष्य

इतिहासकारों के अनुसार, हेमू की दो प्रमुख गलतियां उनकी हार का कारण बनीं:

  • तोपखाने की कमजोर सुरक्षा: उन्होंने अपने तोपखाने को पर्याप्त सुरक्षा नहीं दी, जिसे मुगल सेना ने कब्जा कर लिया।
  • स्वयं अग्रिम मोर्चे पर लड़ना: हेमू का खुद मोर्चे पर आना उनके लिए घातक साबित हुआ। यदि वे पीछे रहकर सेना का निर्देशन करते, तो परिणाम शायद अलग होता।

जंग के बाद बेहोश पड़े हेमू को मुगल सैनिकों ने पकड़ लिया और बैरम खान के पास लाया। समकालीन ग्रंथों में इस घटना के दो संस्करण मिलते हैं। अबुल फजल की ‘आइन-ए-अकबरी’ के अनुसार, बैरम खान ने किशोर अकबर से हेमू को मारने के लिए कहा, लेकिन अकबर ने इंकार किया। जबकि मुहम्मद आरिफ कंधारी की ‘तारीख-ए-अकबरी’ में लिखा है कि अकबर ने स्वयं हेमू का सिर काटा और “गाजी (इस्लाम का योद्धा)” का खिताब प्राप्त किया।

अधिकांश इतिहासकारों का मानना है कि बाद के मुगल दरबारियों ने अकबर की ‘दयालु छवि’ बनाने के लिए पहला संस्करण प्रचारित किया। युद्ध के बाद हेमू का सिर काबुल भेजा गया, जबकि उनका धड़ दिल्ली के पुराना किला द्वार पर लटका दिया गया। उनके कई समर्थकों को भी मारकर खोपड़ियों की एक मीनार बनाई गई, जिसका उल्लेख अकबरनामा में मिलता है। मुगलों ने हेमू के 120 हाथी अपने नियंत्रण में ले लिए, जो आगे चलकर उनकी सेना का हिस्सा बने।

 

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