भारतीय राजनीति और सामाजिक चेतना के इतिहास में कांशीराम एक ऐसा नाम हैं, जिन्होंने न सिर्फ दलित, पिछड़े और शोषित वर्गों के अधिकारों के लिए संघर्ष किया, बल्कि उनके भीतर आत्मगौरव और आत्मबल का संचार भी किया। डॉ. भीमराव आंबेडकर के बाद यदि किसी व्यक्ति ने बहुजन समाज को राजनीतिक मंच पर मजबूती से खड़ा किया, तो वह थे — कांशीराम। उनका जीवन सिर्फ एक राजनेता का नहीं, बल्कि एक विचारधारा का प्रतीक था, जो दलित समाज को हाशिए से उठाकर भारत की मुख्यधारा में लाने का सपना लिए जीता रहा।
प्रारंभिक जीवन और जातिगत भेदभाव से पहली मुठभेड़
15 मार्च 1934 को पंजाब के होशियारपुर ज़िले में जन्मे कांशीराम एक साधारण दलित परिवार से आते थे। उन्होंने साइंस की पढ़ाई की और सरकारी नौकरी में चयनित होकर पुणे की विस्फोटक अनुसंधान और विकास प्रयोगशाला (DRDO) में कार्यरत हो गए। लेकिन वहीं उन्होंने जातिगत भेदभाव का ऐसा अनुभव किया जिसने उनके जीवन की दिशा ही बदल दी। जब उन्होंने देखा कि ऑफिस में डॉ. आंबेडकर की जयंती मनाने वालों को अपमानित किया जाता है, तो यह उनके लिए चेतना की चिंगारी बन गई।
'द एनीहिलेशन ऑफ कास्ट' से मिली दिशा
डॉ. भीमराव आंबेडकर की प्रसिद्ध किताब 'द एनीहिलेशन ऑफ कास्ट' (जाति का उन्मूलन) पढ़ने के बाद कांशीराम की सोच पूरी तरह बदल गई। इस किताब ने उन्हें जातिगत भेदभाव की जड़ों को समझने और उसे खत्म करने का रास्ता दिखाया। उन्होंने यह महसूस किया कि अगर समाज को वाकई बदलना है, तो केवल नौकरी में रहकर नहीं, बल्कि बाहर आकर सामाजिक आंदोलन करना होगा। इसी सोच के साथ उन्होंने अपनी सरकारी नौकरी छोड़ दी और दलित समाज के हक और सम्मान के लिए खुद को पूरी तरह समर्पित कर दिया। यहीं से उनके संघर्ष की असली शुरुआत हुई, जो आगे चलकर एक सामाजिक क्रांति में बदल गई।
BAMCEF की स्थापना: संगठित चेतना की शुरुआत
1971 में उन्होंने अखिल भारतीय एससी, एसटी, ओबीसी और अल्पसंख्यक कर्मचारी संघ की स्थापना की, जिसे बाद में BAMCEF (Backward and Minority Communities Employees Federation) के नाम से जाना गया। यह कोई राजनीतिक संगठन नहीं था, बल्कि एक वैचारिक आंदोलन था, जिसका उद्देश्य समाज के पढ़े-लिखे वर्ग को आंबेडकरवाद से जोड़ना था। इस संगठन ने उस वर्ग को जागरूक किया जो सरकारी नौकरियों में तो था, लेकिन अपने समाज से कटा हुआ था।
DS4 से लेकर BSP तक: बहुजन समाज की राजनीतिक ताकत
1978 में उन्होंने DS4 (दलित शोषित समाज संघर्ष समिति) की स्थापना की और 1984 में बहुजन समाज पार्टी (BSP) की नींव रखी। उन्होंने खुलकर कहा कि 'हम पहला चुनाव हारने के लिए, दूसरा पहचान बनाने के लिए और तीसरा जीतने के लिए लड़ेंगे।' यह आत्मविश्वास ही था जिसने दलित राजनीति को नए स्तर पर पहुंचाया।
BSP की राजनीति केवल सत्ता के लिए नहीं थी, बल्कि यह एक सामाजिक क्रांति थी। उन्होंने अपने लेख 'The Chamcha Age' में उन दलित नेताओं की कड़ी आलोचना की, जो कांग्रेस और भाजपा जैसी पार्टियों के 'सहयोगी' बने हुए थे। उन्होंने इन्हें 'चमचा' (stooge) कहा और दलितों से अपील की कि वे अपनी राजनीतिक ताकत खुद बनाएं, किसी की भी गुलामी न करें।
लोकसभा का सफर और मायावती को उत्तराधिकारी बनाना
1984 में उन्होंने जांजगीर-चांपा से लोकसभा चुनाव लड़ा। यद्यपि वह नहीं जीते, लेकिन BSP ने उत्तर प्रदेश में अपनी जड़ें जमाना शुरू कर दिया था। 1991 में इटावा से उन्होंने जीत दर्ज की और लोकसभा में पहुंचे। 1996 में वह होशियारपुर से फिर से लोकसभा पहुंचे।
2001 में उन्होंने सार्वजनिक रूप से मायावती को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। यह निर्णय उन्होंने सोच-समझकर लिया था क्योंकि वे जानते थे कि बहुजन आंदोलन को निरंतरता चाहिए और नेतृत्व में स्पष्टता।
धर्म परिवर्तन की मंशा और अधूरा सपना
2002 में उन्होंने घोषणा की कि 14 अक्टूबर 2006 को वे डॉ. आंबेडकर के बौद्ध धर्म ग्रहण के 50 वर्ष पूरे होने पर स्वयं भी बौद्ध बनेंगे, और उनके साथ 5 करोड़ समर्थक भी बौद्ध धर्म अपनाएंगे। लेकिन दुर्भाग्यवश, 9 अक्टूबर 2006 को उनका निधन हो गया और यह ऐतिहासिक क्षण अधूरा रह गया।
मायावती ने बाद में स्पष्ट किया कि धर्म परिवर्तन का सपना उन्होंने सत्ता के साथ जोड़कर रखा था — 'धर्म परिवर्तन तब करेंगे जब सत्ता हमारे हाथ में होगी ताकि एक क्रांतिकारी बदलाव आ सके।'
कांशीराम का साहित्यिक योगदान
उन्होंने 'The Chamcha Age' और 'Birth of BAMCEF' जैसी क्रांतिकारी किताबें लिखीं। उनके भाषणों और विचारों को कई लेखकों ने संकलित किया है, जिनमें 'बहुजन नायक कांशीराम के अविस्मरणीय भाषण' और 'कांशीराम: दलितों के नेता' प्रमुख हैं।
कांशीराम का जीवन केवल एक व्यक्ति की कहानी नहीं है, बल्कि यह करोड़ों लोगों की उम्मीदों और संघर्षों की गाथा है। उन्होंने डॉक्टर आंबेडकर के बाद बहुजन आंदोलन में जो शून्यता थी, उसे न सिर्फ भरा बल्कि उसे एक नई ऊर्जा भी दी। आज भारत में यदि बहुजन समाज अपनी बात खुलकर कह पा रहा है, तो उसके पीछे कांशीराम जी का अमूल्य योगदान है।